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कारिका-६]
तत्त्वदीपिका
चार्वाकको छोड़कर अन्य सब सम्प्रदाय मोक्ष आदि चार तत्त्वोंको मानते हैं। केवल उनके स्वरूप में विवाद है, जिसको आगे बतलाया जायगा । चार्वाक मोक्ष आदि तत्त्वोंको नहीं मानता है । चार्वाकका कहना है कि शरीरसे भिन्न कोई आत्मा नहीं है। पृथिवी आदि चार भूतोंके एक साथ मिलनेसे चैतन्यशक्तिकी उत्पत्ति होती है, जैसे महुआ आदि पदार्थांके संमिश्रणसे मदिराकी उत्पत्ति होती है। वह चैतन्यशक्ति जन्मसे पहिले और मरण के बाद नहीं रहती, किन्तु गर्भसे लेकर मरणपर्यन्त ही रहती है। अतः शरीरसे भिन्न कोई नित्य आत्मा नहीं है, जो एक भवसे दूसरे भवमें जाता हो। जीवका एक भवसे दूसरे भवमें जानेका नाम ही संसार है। और नित्य आत्माके अभावमें संसार किसी प्रकार संभव नहीं है। जैसे अचेतन गोमय ( गोबर ) से बिच्छूकी उत्पत्ति हो जाती है, अरणि ( लकड़ी ) के मथनेसे अग्निको उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार पृथिवी आदि भूतोंसे भी एक विलक्षण चैतन्यशक्तिकी उत्पत्ति हो जाती है। इस प्रकार चार्वाक यह सिद्ध करता है कि शरीरसे भिन्न आत्मा नामका कोई पृथक् पदार्थ नहीं है।
__ अच्छी तरह विचार करनेपर यह प्रतीत होता है कि चार्वाकका उक्त कथन कितना असंगत है। प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति दो कारणोंसे होती है-एक उपादान और दूसरा सहकारी। उपादान कारण वह होता है जो स्वयं कार्यरूपसे परिणत हो जाता है । जैसे घटका उपादान कारण मिट्टी है । उपादान कारण और कार्यको एक ही जाति होती है । सहकारी कारण वह है जो कार्यकी उत्पत्तिमें सहायता करता है। जैसे घटकी उत्पत्तिमें कुम्भकार, दण्ड, चक्र आदि सहकारी कारण हैं। अब विचार यह करना है कि गर्भावस्थामें जो चैतन्य आया उसका उपादान कारण क्या है। उसका उपादान कारण पृथिवी आदि भूत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि भूत चैतन्यसे विजातीय हैं। और विजातीयोंमें उपादान-उपादेय भाव नहीं होता है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि जैसे अचेतन गोमयसे चेतन बिच्छूकी उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार अचेतन भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति हो जायगी। अचेतन गोमयसे चेतन बिच्छूकी उत्पत्ति नहीं होती है, किन्तु बिच्छुके अचेतन शरीरकी ही उत्पत्ति होती है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि जैसे अरणिके मन्थन द्वारा अग्निके विना भी अग्निकी उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार विना चैतन्यके भी भतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति हो जायगी । अरणिके मन्थन द्वारा जो अग्निकी उत्पत्ति होती है, उसको अग्निके विना मानना ठीक नहीं है । यद्यपि वहाँ उपादानभूत
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