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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ अज्ञानवश वस्तुको एक धर्मात्मक होनेकी कल्पना करते हैं। कोई कहता है कि वस्तु सत् ही है, तो कोई कहता है कि वस्तु असत् ही है। कुछ लोग मानते हैं कि वस्तु नित्य ही है, तो कुछ लोगोंकी धारणा है कि वस्तु अनित्य ही है। इस प्रकार वस्तुमें केवल एक धर्मको मानने वाले एकान्तवादी हैं। स्वमतमें अनुरागके कारण ये लोग एकान्तवादके आग्रहको नहीं छोड़कर स्वयं अपना अकल्याण तो कर ही रहें हैं, साथमें अन्य लोगोंका भी अहित कर रहे हैं । वस्तुतत्त्वको ठीक ठीन न समझनेके कारण एकान्तवादियोंको सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता है, और सम्यग्ज्ञानके अभावमें संसारके परिभ्रमणसे छूटना असंभव है।
एकान्तवादियोंके यहाँ कर्म, कर्मफल, बन्ध, मोक्ष, इहलोक, परलोक आदि कुछ भी नहीं बन सकता है। 'स्वपर वैरिषु'का अर्थ निम्न प्रकार भी किया गया है। पुण्य-पाप कर्म, कर्मफल, परलोक आदि स्व हैं, क्योंकि एकान्तवादियोंने इनको माना है। तथा अनेकान्त पर है, क्योंकि एकान्तवादियोंने अनेकान्तका निषेध किया है। ये लोग पर ( अनेकान्त )के वैरी होनेके कारण स्व ( कर्म आदि )के भी वैरी हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि अनेकान्तके अभावमें पुण्य-पाप कम आदिकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। एकान्तवादमें क्रमसे या अक्रम ( युगपत् )से कोई भी कार्य नहीं हो सकता है । क्रम और अक्रमकी व्याप्ति अनेकान्तके साथ है । एकधर्मात्मक वस्तमें क्रम और अक्रमके अभावमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती, और अर्थक्रियाके अभावमें कर्म आदिकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकेगी। मन, वचन
और कायकी क्रियासे कर्मका आगमन होता है। जब एकधर्मात्मक वस्तु न क्रमसे कार्य करती है और न अक्रमसे, तो क्रियाके अभावमें कर्मकी उत्पत्ति कैसे होगी। यही बात परलोक आदिके विषयमें जानना चाहिए। कर्मके अभावमें तप, जप आदिके अनुष्ठानसे भी कोई लाभ नहीं है। क्योंकि एकान्तवादमें तप आदिके करनेसे कर्मक्षय, मोक्ष आदिकी प्राप्ति संभव नहीं है । सत्त्वैकान्त, असत्त्वैकान्त नित्यैकान्त, अनित्यकान्त आदि एकान्तवादोंमें जप, तप आदिके अनुष्ठानसे पुण्यकर्म आदिकी उत्पत्ति होना असंभव है।
शंका-सत्त्वैकान्तवादी ( जो पदार्थको सर्वथा सत् ही मानता है ) के यहाँ कर्म, कर्मफल, मोक्ष आदिकी उत्पत्ति न हो, यह ठीक है, क्योंकि उसके यहाँ सब पदार्थ सर्वथा सत् हैं। और यह नियम है कि सत् वस्तुकी उत्पत्ति नहीं होती है । किन्तु असत्त्वैकान्तवादी ( जो पदार्थको सर्वथा
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