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कारिका-६ ]
तत्त्वदीपिका
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सकता । इसलिये नित्यैकान्तवादी सांख्यके यहाँ संसार तत्त्वकी व्यवस्था नहीं बन सकती ।
अनित्यैकान्तवादी बौद्धोंके यहाँ भी एक पर्यायका दूसरी पर्याय के साथ कोई सम्बन्ध न होनेसे संसार नहीं बन सकता है । बौद्धों के यहाँ विनाश निरन्वय होता है अर्थात् पहिलेकी पर्यायका आगेकी पर्यायके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । कोई भी पदार्थ दो क्षण नहीं ठहरता है । सब पदार्थ क्षण-क्षण में नष्ट होते रहते हैं । ऐसी स्थिति में संसार कैसे संभव हो सकता है । इसप्रकार अन्य मतमें संसार तत्त्वकी व्यवस्था भी ठीक नहीं है ।
संसारकारणतत्त्व ( संसारका कारण ) की व्यवस्था भी अन्य मतोंमें न्याय और आगमसे विरुद्ध है । सबने मिथ्याज्ञानको संसारका कारण माना है। लेकिन मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होनेपर भी संसारका अभाव नहीं होता । इससे ज्ञात होता है कि संसारका कारण मिथ्याज्ञानके अतिरिक्त कुछ और है । वह कारण है दोष या मिथ्याचारित्र । मिथ्याज्ञानकी निवृत्तिके बाद भी जबतक दोषोंकी या मिथ्याचारित्रकी निवृत्ति नहीं होती है तबतक मोक्ष नहीं हो सकता । अतः मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसारके कारण हैं, न कि केवल मिथ्याज्ञान । इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि कपिल आदिके द्वारा बतलाये गये मोक्ष आदि तत्त्वोंका स्वरूप ठीक न होनेसे उनके वचन न्याय और आगमसे विरुद्ध हैं । इसीलिये वे सदोष हैं, और सदोष होनेसे वे सर्वज्ञ नहीं हो सकते । अर्हन्तमें यह बात नहीं है । उनके वचन युक्ति और आगमसे अविरोधी होनेके कारण वे निर्दोष हैं, और निर्दोष होनेसे सर्वज्ञ हैं । इसीलिये अर्हन्त ही सकल विद्वज्जनों द्वारा स्तुत्य हैं।
यहाँ बौद्ध कहते हैं कि कोई सर्वज्ञ - वीतराग हो भी किन्तु यही ( अर्हन्त ही ) सर्वज्ञ - वीतराग हैं, ऐसा निश्चय नहीं किया जा सकता । क्योंकि वीतराग पुरुषका जैसा व्यापार ( काय की प्रवृत्ति ) और व्याहार ( वचनकी प्रवृत्ति ) देखा जाता है वैसा व्यापार और व्याहार जो वीतराग नहीं है उनमें भी पाया जाता है । अत: यह निर्णय करना कठिन है कि ये वीतराग हैं और ये वीतराग नहीं हैं । प्रायः प्रत्येक पुरुष में विचित्र ( नाना प्रकारका ) अभिप्राय पाया जाता है । विचित्र अभिप्रायके पाये जानेसे ठीक-ठीक अभिप्रायका समझना भी शक्य नहीं है । कोई मनुष्य किसी बातको इसप्रकार कहता है या ऐसा आचरण करता है, जिससे देखनेवाला या सुननेवाला उसे वीतराग ही समझता है । किन्तु यथार्थ में
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