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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ उसके कहनेका अभिप्राय कुछ दूसरा ही होता है। यदि सुननेवाले उसके असली अभिप्रायको समझ लें तो उसको कभी भी वीतराग न मानें। इसलिये किसीके व्यापार और व्याहारको देखकर यह कहना कि यह वीतराग है, उचित नहीं हैं। क्योंकि वैसा व्यापार और व्याहार अवीतरागमें भी पाया जाता है। __बौद्धोंका उपर्युक्त कथन स्वयं बुद्धकी असर्वज्ञता एवं अवीतरागताको ही सिद्ध करता है। बौद्ध बुद्धको सर्वज्ञ और वीतराग मानते हैं । यदि पुरुषोंमें नानाप्रकारके अभिप्रायके कारण यह निर्णय करना कठिन है कि यह वीतराग है और यह नहीं, तो बुद्ध में भी वीतरागताका निर्णय कैसे करेंगे । और तब कपिल आदिसे बुद्धको विशिष्ट पुरुष ( वीतराग ) कैसे मान सकेंगे। यदि यथार्थ ज्ञानवाले पुरुषमें भी हम विसंवादको कल्पना करें, तो फिर कौन पुरुष विश्वास भाजन होगा। अर्थात् संसार में कोई विश्वास करने योग्य ही नही रहेगा। वीतरागमें विचित्र अभिप्राय भी नहीं हो सकता है। प्रत्युत उसमें तो यथार्थ अर्थके प्रतिपादन करनेका ही अभिप्राय होता है। अवीतरागमें अवश्य नाना प्रकारका अभिप्राय पाया जाता है। क्योंकि उसको अपनी पूजा, ख्याति, परवञ्चना, स्वार्थसिद्धि आदिकी इच्छा रहती है। किन्तु जो वीतराग है उसकी सब क्रियायें केवल परोपकारके लिये ही होती हैं। ख्याति, किसीको ठगने आदिका लेश भी नहीं रहता है । अवीतराग पुरुषका व्यापार और व्याहार एक समयमें जेसा होगा दूसरे समयमें वैसा नहीं होगा। किन्तु वीतरागका व्यापार और व्याहार सदा एक ही उद्देश्यको लिए हए होगा। इसलिये वीतराग और अवीतरागका निर्णय करना कठिन नहीं है।
जो व्यक्ति ऐसा कहता है कि विचित्र अभिप्रायके कारण वीतराग और अवीतरागका निर्णय करना कठिन है उसके यहाँ अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता। बौद्धोंके यहाँ तीन हेतु माने गये हैं--कार्य, स्वभाव और अनुपलब्धि । पर्वतमें धूमको देखकर जो वह्निका ज्ञान किया जाता है, वह कार्य हेतु जन्य है, क्योंकि यहाँ धूम वह्निका कार्य है। 'यह वृक्ष है, शिशपा होनेसे', इस अनुमानमें शिशपासे जो वृक्षका ज्ञान किया जाता है, वह स्वभाव हेतुजन्य है, क्योंकि शिशपा वृक्षका स्वभाव है । 'यहाँ घट नहीं है, अनुपलब्ध होने से ।' यहाँ जो घटके अभावका ज्ञान होता है, वह अनुपलब्धि हेतुजन्य है । किन्तु कार्य हेतु और स्वभाव हेतुमें व्यभिचार पाया जाता है। हम देखते हैं कि काष्ठ आदिके होने पर अग्नि होती है
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