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कारिका-६]
तत्त्वदीपिका
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और काष्ठके विना नहीं होती है। इसके विपरीत यह भी देखा जाता है कि सूर्यकान्त मणिके होने पर भी अग्निकी उत्पत्ति हो जाती है। और गोपालघटिका (सर्पकी बामी) में अग्निके अभावमें भी धूम पाया जाता है। मंत्र-तंत्र जानने वाले विना अग्निके भी धम उत्पन्न कर देते हैं। शिंशपाको देखकर वृक्षका ज्ञान किया जाता है, किन्तु शिशपाकी लतामें शिंशपात्वके रहने पर भी वृक्षत्व नहीं रहता है। अतः उक्त हेतुओंमें व्यभिचार होनेसे धूमसे वह्निका ज्ञान करना और शिशपाको देखकर वृक्षका ज्ञान करना संभव नहीं होगा।
इसके उत्तरमें बौद्ध कह सकते हैं हम इस बातकी परीक्षा करेंगे कि जैसी अग्नि काष्ठसे उत्पन्न होती है वैसी सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न नहीं होती है। और जैसा धूम अग्निसे उत्पन्न होता है वैसा सर्पकी बामीमें नहीं पाया जाता है । जहाँ शिशपाका वृक्ष होगा वहीं शिंशपासे वृक्षका ज्ञान करेंगे, शिंशपाकी लतासे नहीं। अतः अनुमान प्रमाणका अभाव कैसे हो सकता है । तो जैन भी वीतरागकी सिद्धिके लिए इस बातकी परीक्षा करेगे कि जैसा व्यापार और व्याहार अवीतरागमें पाया जाता है, वैसा व्यापार और व्याहार वीतरागमें नहीं पाया जाता। इसलिये विशेष प्रकारके व्यापार और व्याहारके द्वारा वीतरागकी सिद्धि में किसी प्रकारके संशयको स्थान नहीं है। युक्ति और आगमसे जिसके वचनोंमें कोई विरोध न हो वह निश्चयसे सर्वज्ञ और वीतराग है। ____ अर्हन्तको जो तत्त्व इष्ट है उसमें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं आती है। अत: अर्हन्त ही सर्वज्ञ हैं। यहाँ इष्ट शब्दका अर्थ है—मत अथवा शासन । इच्छित अथवा इच्छाका विषयभूत पदार्थका नाम इष्ट नहीं है। क्योंकि अर्हन्तने मोहनीय कर्मका सर्वथा नाश कर दिया है । इच्छा मोहनीय कर्मकी पर्याय है, अतः मोहनीय कर्मरूप इच्छा प्रणष्टमोह अर्हन्तमें कैसे संभव हो सकती है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि सर्वज्ञ विना इच्छाके नहीं बोल सकता है, क्योंकि वचनकी प्रवृत्ति इच्छापूर्वक देखी जाती है। किन्तु उक्त शंका युक्तिसंगत नहीं है। वचनकी प्रवृति और इच्छामें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं है। यदि ऐसा नियम माना जाय कि इच्छाके होने पर ही वचनकी प्रवृत्ति होती है, तो सोये हुए तथा अन्यमनस्क (जिसका चित्त किसी दूसरी बातमें लगा हो) व्यक्तिकी वचनकी प्रवृत्ति विना इच्छाके नहीं होना चाहिये। सोया हुआ पुरुष विना किसो इच्छाके कभी कभी कुछ बोलने लगता है। जो अन्यमनस्क है वह कुछ
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