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७४ आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ गये पदार्थों में अनुमान करना व्यर्थ ही है । मीमांसकका कहना है कि स्वभाव आदिसे विप्रकृष्ट जो धर्मादि पदार्थ हैं, यद्यपि वे अनुमेय नहीं हैं, फिर भी वेदके द्वारा जाने जाते हैं । अतः उनमें अनुमान प्रमाणकी प्रवृत्ति न होनेपर भी अन्य पदार्थों में अनुमानकी प्रवृत्ति होनेसे अनुमानका अभाव नहीं होगा । किन्तु हम देखते हैं कि धर्म, अधर्म आदिको भी अनुमानके विषय होनेमें कोई विरोध नहीं है। 'धर्माधर्मादिरस्ति श्रेयःप्रत्यवायाद्यन्यथानुपपत्तेः' 'धर्म, अधर्म आदिका सद्भाव है, क्योंकि सुख, दुःख आदिकी उपलब्धि देखी जाती है।' इस प्रकारके अनुमानसे धर्मादिका ज्ञान होता ही है । अतः धर्मादिको अनुमेय ( अनुमानका विषय ) मानने में कोई विरोध न होनेसे मीमांसकका यह कहना ठीक नहीं है कि धर्मादिका ज्ञान केवल वेदसे ही होता है। __अनुमेयत्वका अर्थ दूसरे प्रकारसे भी किया जा सकता है । अर्थात् जो पदार्थ श्रुतज्ञानसे जाना जाता है वह अनुमेय है। धर्मादिमें इस प्रकारका अनुमेयत्व मीमांसकको भी इष्ट है । वेदके द्वारा सब पदार्थोंका ज्ञान होता है, यह वात मीमांसकको भी अभीष्ट है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री तथा तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें अनुमेयत्वका अर्थ श्रुतज्ञानाधिगम्यत्व भी किया है। अतः अनुमेयत्वका दूसरा अर्थ करनेपर धर्म आदिको अनुमेय मानने में मीमांसकको कोई विरोध नहीं होना चाहिये । अतः धर्मादि सूक्ष्म पदार्थों को कोई प्रत्यक्षसे जानता है, क्योंकि वे श्रुतज्ञान अथवा वेदके द्वारा जाने जाते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म आदि पदार्थोंको अनुमेय होनेसे उनमें प्रत्यक्षत्वकी सिद्धि होना अनिवार्य है।
ऐसा सम्भव नहीं है कि सूक्ष्म आदि पदार्थ अनुमेय होनेपर भी किसी को प्रत्यक्ष न हों। क्योंकि ऐसा माननेपर अग्निके विषयमें भी कहा जा सकता है कि पर्वतमें जो अग्नि है वह अनुमेय होनेपर भी किसीको प्रत्यक्ष नहीं है । तथा ऐसा भी कहा जा सकता है कि धूमके होनेपर भी वह्नि नहीं है। और ऐसा माननेपर अनुमान प्रमाणका उच्छेद ही हो जायगा।
यहाँ चार्वाक कहता है कि अनुमान प्रमाणका उच्छेद इष्ट ही है। क्योंकि प्रत्यक्षके द्वारा जो वस्तू जानी जाती है वह ठीक निकलती है, इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण है। अनुमानके द्वारा जानी गयी वस्तु ठीक नहीं
१. सूक्ष्माद्यर्थोऽपि चाध्यक्षः कस्यचित् सकलः स्फुटम् । श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वात् नदीद्वीपादिदेशवत् ॥
-तत्त्वार्थश्लोकवा० १११११०
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