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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद-१ उत्तर--उक्त शंका ठीक नहीं है। आत्मामें जो मल है वह आगन्तुक है, और नाशके कारणोंके मिलनेपर उसका पूर्ण नाश होना अवश्यंभावी है। आत्माका परिणाम दो प्रकारका है-स्वाभाविक और आगन्तुक । अनन्त ज्ञान आदि जो आत्माका स्वरूप है वह स्वाभाविक परिणाम है, और कर्मके उदयसे होने वाला अज्ञान आदि आगन्तुक परिणाम है। यह आगन्तुक परिणाम आत्माका विरोधी है, इसलिए जब नाशके कारण मिल जाते हैं तो उसका नाश अवश्य हो जाता है। सम्यग्दर्शन आदि मिथ्यादर्शन आदिके विरोधी हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदिका प्रकर्ष होनेपर मिथ्यादर्शन आदिका अपकर्ष देखा जाता है। जब सम्यग्दर्शनादिका पूर्ण प्रकर्ष हो जाता है तो मिथ्यादर्शनादिका पूर्ण क्षय भी नियमसे होता है । इसलिये ऐसा नहीं है कि एक दोषका क्षय होनेपर भी दूसरा दोप बना रहता है, किन्तु दोषोंके विरोधी गुणोंका प्रकर्ष होनेपर दोषोंका सर्वथा अभाव निश्चितरूपसे हो जाता है।
शंका-यह ठीक है कि किसी आत्मामें दोष और आवरणका सर्वथा अभाव हो जाता है। किन्तु उस आत्माको देश, काल और स्वभावसे विप्रकृष्ट पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है, यह बात समझमें नहीं आती। जिस चक्षुमें कोइ दोष नहीं है वह देश, काल और स्वभावसे विप्रकृष्ट पदार्थोंको नहीं जान सकती। ग्रहण तथा मेध पटलके दूर होनेपर सूर्य भी अपने योग्य वर्तमान पदार्थोंको ही प्रकाशित करता है। इसी प्रकार दोष और आवरणरहित आत्मा भी धर्म आदि सूक्ष्म पदार्थोंको कैसे जान सकता है । किसी पुरुष द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रत्यक्ष ज्ञान करनेमें मीमांसकको कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु धर्मका ज्ञान वेद द्वारा ही हो सकता है। वेदके अतिरिक्त किसी पुरुषमें ऐसी शक्ति नहीं है कि वह धर्मका ज्ञान कर सके। अर्थात् पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है, धर्मज्ञ नहीं । इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं
सूक्ष्मान्तरितरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥ देश, काल और स्वभावसे विप्रकृष्ट पदार्थ किसीको प्रत्यक्ष होते हैं, क्योंकि उनको हम अनुमानसे जानते हैं। जो पदार्थ अनुमानसे जाने जाते १. धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ।।
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