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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१
भाव सिद्ध करना हमारा अभीष्ट है । अतः पत्थरमें दोष और आवरणकी पूर्ण हानि बतलाना ठीक नहीं है ।
शंका-यदि हानिमें अतिशय होनेके कारण दोष और आवरणकी पूर्ण हानि हो जाती है, तो किसी आत्मामें बुद्धिका भी पूर्ण नाश हो जाना चाहिये। क्योंकि बुद्धिकी हानिमें भी अतिशय देखा जाता है। किसीमें अधिक बुद्धि है, किसीमें उससे कम बुद्धि है और अन्यमें उससे भी कम बुद्धि है । इस प्रकार बुद्धिकी हानिमें अतिशय पाया जाता है । यदि बुद्धिका अत्यन्त नाश नहीं होता है, तो फिर यह कहना भी ठीक नहीं है कि दोष और आवरणका अत्यन्त नाश हो जाता है।
उत्तर-बुद्धिकी हानिमें अतिशय पाया जाता है तो पृथिवी आदिमें बुद्धिकी भी सर्वथा हानि होती ही है। जब पृथिवीकायिक जीवने पृथिवीको शरीररूपसे ग्रहण किया तो चेतन जीवके संयोगसे पृथिवी भी चेतन हो गयी । पृथिवीमें चेतन जीवके संयोगसे बुद्धि भी मानना ही होगी । बादमें आयुकर्मके क्षय होनेपर जीवने पृथिवीकायको छोड़ दिया तो उस पृथिवीमेंसे बुद्धिकी अत्यन्त हानि हो जानेसे बुद्धिमें भी पूर्ण हानि पायी ही जाती है। अतः जहाँ हानिमें अतिशय होगा वहाँ उसकी अत्यन्त हानि नियमसे होगी। ___ शंका--पृथिवीकायसे जीवके निकल जानेपर उसमें जीवके बुद्धि आदि गुणोंका पूर्ण अभाव सिद्ध करना कठिन है। क्योंकि बुद्धि आदि अदृश्य हैं
और अदृश्य वस्तुका अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है । 'यहाँ परमाणु नहीं है अथवा पिशाच नहीं है' ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि परमाणु आदि अदृश्य हैं। नहीं दिखनेपर भी उनकी सत्ता संभव है। इसी प्रकार 'इस पृथिवीकायमें बुद्धि नहीं रही' ऐसा कहना कठिन है।
उत्तर-यदि चेतनता या बुद्धिको अदृश्य होनेसे पृथिवीकायमें उसका अभाव नहीं माना जायगा तो किसी मनुष्यके मरनेपर उसमें भी चेतनताका अभाव मानना अनुचित होगा। अथवा वहाँ चेतनताके अभावमें संदेह रहेगा । ऐसी स्थितिमें उसकी दाहक्रिया करनेवाले मनुष्योंको महान् पापका बन्ध होगा। अत: यह कहना ठीक नहीं है कि अदृश्य होनेसे पृथिवीकायमें चेतनताका अभाव नहीं माना जा सकता। लोकमें भी रोग आदि अप्रत्यक्ष पदार्थों की सर्वथा निवृत्ति देखी जाती है । इसलिए अदृश्य पदार्थकी निवृत्ति मानने में कोई दोष नहीं है।
यदि ऐसा माना जाय कि जो अदृश्य और दूरवर्ती पदार्थ हैं उनका
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