________________
आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ यद्यपि सर्वज्ञ बोलता है, किन्तु उसका बोलना युक्ति और आगमके अनुसार होता है । वक्तृत्व और सर्वज्ञत्वमें कोई विरोध नहीं है । जो व्यक्ति जितना अधिक ज्ञानवाला होगा, वह उतना ही अच्छा बोल सकता है। सर्वज्ञका ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है, किन्तु अतीन्द्रिय है । मोहनीयकर्मका अभाव होनेसे उसमें इच्छाका भी अभाव है । यद्यपि सर्वज्ञ पुरुष है, परन्तु वह साधारण पुरुष न होकर रागादिदोषोंसे रहित एक विशिष्ट पुरुष है। जो पुरुष इसप्रकारका होगा उसके सर्वज्ञ होने में कोई बाधा नहीं है। इसलिये ऐसा मानना ठीक नहीं है कि संसारमें न तो कोई सर्वज्ञ हो सकता है और न संसारके प्राणियोंको संसारसे छूटनेका उपाय ही बतला सकता है। जो निर्दोष है वह सर्वज्ञ तथा मोक्षमार्गका उपदेशक अवश्य होता है और वही हमारा गरु है। इसी बातको 'कश्चिदेव भवेद्गरुः' इस वाक्य द्वारा बतलाया गया है !
यहाँ ‘भवेद्गुरु' एक पद है। 'क' तथा 'चिदेव' ( चित् + एव ) भी पृथक्-पृथक् पद हैं । 'क' का अर्थ है परमात्मा और चित्का अर्थ है चैतन्य । 'भवेद्गुरु' का अर्थ है--ससारी प्राणियोंका गुरु । अर्थात ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोका क्षय हो जानेपर जो चैतन्य परमात्मा है वही संसारी प्राणियोंका गुरु है। इसप्रकारके सर्वज्ञ और हितोपदेशी गरुके सद्भावमें कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है। क्योंकि बाधक प्रमाणोंका असंभव अच्छी तरहसे निश्चित है।
यहाँ मीमांसक कह सकता है कि सर्वज्ञका साधक कोई भी प्रमाण न होनेसे सर्वज्ञका सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता । अतः जैनोंका यह कहना कि बाधक प्रमाणोंके अभावसे सर्वज्ञका सद्भाव सुनिश्चित है, ठीक नहीं है । सर्वज्ञके साधक प्रमाणोंका अभाव निम्नप्रकार है
प्रत्यक्षके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं होती है, यह स्पष्ट ही है। क्योंकि प्रत्यक्ष इन्द्रियोंसे सम्बद्ध निकटवर्ती वर्तमान पदार्थको ही जानता है । सर्वज्ञके साथ अविनाभावी किसी हेतुकी उपलब्धि न होनेसे अनुमानके द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं होती है। आगम दो प्रकार का है-नित्य
और अनित्य । नित्य आगम ( वेद ) से सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उसमें कर्मकाण्डका ही वर्णन है । वेदमें भी जहाँ सर्वज्ञ आदिाशब्द आते हैं वे अर्थवादरूप हैं। अर्थात् वे सर्वज्ञरूप अर्थको न कहकर यज्ञ करनेवालेकी स्तुतिपरक हैं । वेद अनादि है और सर्वज्ञ सादि है । इसलिये १. सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org