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कारिका-३]
तत्त्वदीपिका लिए प्रमाण मानता है कि वह प्रमाणसिद्ध है। यदि नैयायिक आदिके द्वारा माना गया अनुमान प्रमाणसिद्ध नहीं है तो अनुमान प्रमाण ही नहीं हो सकता है, तब उसके द्वारा सर्वज्ञ आदिका अभाव करना नितान्त असंभव है। चार्वाक यदि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा संसारके पुरुषोंका ज्ञान करके यह जान लेता है कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं है, तो इस प्रकार जानने वाला स्वयं सर्वज्ञ हो जायगा । संसारके सब पुरुषोंका ज्ञान कर लेना सर्वज्ञका ही काम है।
एक मत तत्वोपप्लववादीके नामसे प्रसिद्ध है । तत्त्वोपत्लववादीका अर्थ है कि जो संसारके किसी भी तत्त्वको नहीं मानता है, और प्रमाण, प्रमेय आदि समस्त तत्त्वोंका निराकरण करता है। इस मतके अनुसार संसारके सब तत्त्व मिथ्या हैं। किसी भी तत्त्वकी सत्ता वास्तविक नहीं है । विचार करने पर तत्त्वोपप्लववादीका मत भी असंगत प्रतीत होता है। जब कि तत्त्वोपप्लववादी किसी प्रमाणको नहीं मानता है, तो वह समस्त तत्त्वोंका अभाव किस प्रमाणसे सिद्ध करेगा। अर्थात् उसके यहाँ सब तत्त्वोंके अभावको सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण ही नहीं है । यदि दूसरोंके द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे तत्त्वोंका अभाव किया जायगा, तो चार्वाकके समान यहाँ भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि दूसरोंके द्वारा अभिमत प्रत्यक्षादि प्रमाण सम्यक हैं या मिथ्या । यदि सम्यक हैं तो तत्त्वोपप्लव वादीको भी उनका सद्भाव मानना पड़ेगा, और मिथ्या हैं तो मिथ्या प्रमाणोंके द्वारा सब तत्त्वोंका अभाव सिद्ध करना त्रिकालमें भी संभव नहीं है। इस प्रकार तत्त्वोपप्लववादीका मत भी असमीचीन ही है।
एकमत वैनयिक भी है। इस मतके अनुसार कपिल, सुगत आदि सब सर्वज्ञ हैं, सब देवता समान हैं, सबकी समान रूपसे विनय करना आवश्यक है। किन्तु कपिल आदिके द्वारा मानी गई तत्त्वव्यवस्थाको देखने पर यह भलीभाँति प्रतीत होता है कि परस्परमें विरुद्ध अर्थका प्रतिपादन करनेके कारण न तो सब सर्वज्ञ हो सकते हैं। और न उनमेंसे कोई एक भी।
मीमांसकोंका कहना है कि कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। क्योंकि वह बोलता है, इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, इच्छा वाला है, पुरुष है, इत्यादि । इस विषयमें जैनोंका मत है कि जो पुरुष इस प्रकारका है वह निश्चयसे सर्वज्ञ नहीं हो सकता है, किन्तु जिसको हम सर्वज्ञ मानते हैं, उसमें उक्त बातें न होकर कुछ विशिष्ट बातें पायी जाती हैं।
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