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कारिका - ३ ]
तत्त्वदीपिका
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भी अनादि वेदके द्वारा सादि सर्वज्ञका कथन संभव नहीं है । अनित्य आगम भी दो प्रकार का है - सर्वज्ञप्रणीत और इतरप्रणीत । यदि सर्वज्ञप्रणीत आगमसे सर्वज्ञकी सिद्धि मानी जाय तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष आता है । सर्वज्ञसिद्धि होनेपर सर्वज्ञ प्रणीत आगमकी सिद्धि हो और सर्वज्ञप्रणीत आगमके सिद्ध होनेपर सर्वज्ञकी सिद्धि हो । असर्वज्ञप्रणीत आगम तो प्रमाण ही नहीं है, तब उसके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धि कैसे हो सकती है । उपमान प्रमाण भी सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं करता है । क्योंकि सर्वज्ञके सदृश कोई दूसरा अर्थ उपलब्ध नहीं है, जिसके सादृश्यसे सर्वज्ञका ज्ञान हो सके । जैसे कि गायके सादृश्यसे गवयका ज्ञान होता है ।
अर्थापत्ति प्रमाणसे भी सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं होती है । क्योंकि कोई ऐसा अर्थ उपलब्ध नहीं है जो सर्वज्ञके विना न हो सके । धर्मादिका उपदेश तो सर्वज्ञत्व के विना भी धन, ख्यातिलाभ आदिकी इच्छासे हो सकता है । बुद्ध, महावीर आदिको वेदका ज्ञान न होनेसे उनका उपदेश मिथ्या है । वेदको जाननेवाले मनु आदिका उपदेश ही सम्यक् है ।
प्रत्यक्ष में ऐसा अतिशय नहीं हो सकता है कि वह संसारके सब पदार्थोंको युगपत् जानने लगे । जहाँ भी अतिशय होता है वहाँ अपने विषयमें ही अतिशय देखा गया है, विषयान्तरमें नहीं । चक्षुमें ऐसा अतिशय तो हो सकता है कि वह किसी दूरवर्ती तथा सूक्ष्म पदार्थको देखने लगे, किन्तु ऐसा अतिशय नहीं हो सकता कि चक्षुके द्वारा शब्द सुने जा सकें अथवा श्रोत्रके द्वारा रूपका ज्ञान हो सके । जो व्याकरणका विद्वान् है वह सूक्ष्मरीतिसे शब्दकी शुद्धाशुद्धिका ही ज्ञान कर सकता है, न कि ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्तोंका । जो व्यक्ति आकाशमें दश हाथ ऊपर उछल सकता है वह सैकड़ों प्रयत्न करनेपर भी एक योजन ऊपर नहीं उछल सकता । इसप्रकार प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण सर्वज्ञका साधक नहीं है ।
मीमांसका उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । जबतक सर्वज्ञका निराकरण नहीं किया जाता है तबत्तक सर्वज्ञके साधक प्रमाणोंका अभाव बतलाना ठीक नहीं है । सर्वज्ञके विषयमें कोई भी बाधक प्रमाण न होनेसे सर्वज्ञका सद्भाव मानना ही श्रेयस्कर है । प्रत्यक्षादिका सद्भाव भी इसी कारण माना गया है कि ऐसा मानने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है । यही बात सर्वज्ञके विषयमें भी है । यदि बाधक प्रमाणोंका अभाव होनेपर भी सर्वज्ञकी सत्ता न मानी जाय तो प्रत्यक्षादिकी सत्ता भी नहीं मानना चाहिये |
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