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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंको जानने में पूर्णरूपसे समर्थ है' | इस प्रकारकी शक्ति इन्द्रिय आदि अन्य किसी पदार्थ में नहीं है । वेदका दूसरा नाम श्रुति भी है ।
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वेदमें मुख्यरूपसे विधि और निषेधरूप दो प्रकार के कार्यों का उपदेश दिया गया है । विधि और निषेध ही वेदका प्रतिपाद्य अर्थ है । 'अग्निष्टोमेन यजेत् स्वर्गकामः' अर्थात् जिसको स्वर्ग प्राप्त करनेकी इच्छा हो वह अग्निष्टोम नामक यज्ञ करे | यह विधि वाक्य है । 'सुरां न पिबेत्'मदिराको न पिओ । यह निषेधवाक्य है । किन्तु 'यजेत्' क्रियाका अर्थ क्या है, इस विषय को लेकर मीमांसकोंमें मतभेद पाया जाता है । यज् धातुसे लिङ्लकारमें 'यजेत्' रूप बनता है । 'यजेत् ' में जो लिङ्लकार है उसका क्या अर्थ है, इस विषय में मीमांसकोंके तीन मत हैं -- भावनावादी, नियोगवादी और विधिवादी । भाट्ट 'अग्निष्टोमेन यजेत्' इस वाक्यका अर्थ भावना - परक करते हैं । प्राभाकर उसी वाक्यका अर्थ नियोग करते हैं । और वेदान्तियोंके अनुसार विधि ही उक्त वाक्यका अर्थ है । लेकिन इस मतभेदके कारण वेद वाक्योंका वास्तविक अर्थ समझना बड़ा कठिन हो जाता है । इस प्रसंग में निम्न श्लोक ध्यान देने योग्य हैं
भावना यदि वाक्यार्थो नियोगो नेति का प्रमा । तावुभौ यदि वाक्यार्थो हतो भट्टप्रभाकरौ ॥ कार्येऽर्थे चोदनाज्ञानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा ॥ द्वयोश्चेद्धन्त तौ नष्टौ भट्टवेदान्तवादिनौ ॥
यदि वाक्यका अर्थ भावना है तो नियोगको वाक्यका अर्थ न माननेमें कौनसी युक्ति है । और यदि दोनों ही वाक्यके अर्थ हैं तो भाट्ट और प्राभाकरोंके सिद्धान्तोंमें मतभेद नहीं होना चाहिये । यदि वेद वाक्यका अर्थ कार्य अर्थ ( जो अर्थ किया जानेवाला है अर्थात् भावना ) में है तो स्वरूप (विधि) में क्यों नहीं है । यदि भावना और विधि दोनों ही वेदवाक्यके अर्थ हैं तो भाट्ट और वेदान्तवादियोंमें कोई मतभेद ही नहीं होना चाहिये ।
भावना आदिका संक्षेपमें अर्थ
भावनाका लक्षण है 'भवितुर्भवनानुकूलः भावकव्यापारविशेषः' अर्थात् जो कार्य आगे होनेवाला है उसकी उत्पत्ति के अनुकूल भावक ( प्रयो
१. चोदना ही भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थ भवगमयितुमलम् ।
- शा० भा० १-१-२ ।
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