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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
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है । महर्षि जैमिनि मीमांसादर्शन के सूत्रकार हैं । मीमांसाके दो भेद हैंपूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा । पूर्वमीमांसा में वैदिक कर्मकाण्डका वर्णन है, और उत्तरमीमांसाका विषय है ब्रह्म । अतः उत्तरमीमांसा 'वेदान्त' नामसे प्रसिद्ध है । इस कारण पूर्वमीमांसा के लिए केवल मीमांसा शब्दका प्रयोग किया जाता है ।
पूर्वमीमांसा में भी कुमारिलभट्ट तथा प्रभाकर इन दो प्रमुख आचार्योंके अनुयायियों के अनुसार भाट्ट और प्राभाकर इसप्रकार दो भेद हैं ।
तत्त्वव्यवस्था
प्राभाकर पदार्थों की संख्या ८ मानते हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या । भाट्टोंके अनुसार पदार्थ ५ होते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, समान्य और अभाव । भाट्ट द्रव्योंकी संख्या ११ मानते हैं -- न्याय-वैशेषिक द्वारा माने हुए नौ द्रव्य तथा तम और शब्द | प्राभाकर १० ही द्रव्य मानते हैं, वे तमको द्रव्य नहीं मानते । मीमांसकोंके अनुसार यह जगत् आनादि एवं अनन्त है । इसका न कोई कर्ता है और नहर्ता, यह सदा से ऐसा ही चला आया है ।
प्रमाणव्यवस्था
भाट्ट ६ प्रमाण मानते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि | किन्तु प्राभाकर अनुपलब्धि के विना ५ प्रमाण मानते हैं । हैं । मीमांसकों तथा नैयायिकोंके उपमान प्रमाण के स्वरूपमें भेद है । नयायिकोंके अनुसार 'यह पदार्थ गवय शब्दका वाच्य है' इस प्रकार शब्द और अर्थमें वाच्यवाचक सम्बन्धके ज्ञानको उपमान कहते हैं । किन्तु मीमांसकोंके अनुसार 'गो सदृशोऽयं गवयः' यह गवय गायके समान है, इस प्रकार गवयको देखकर गवयमें गोसादश्यके ज्ञानको उपमान कहते हैं । जिसने 'गोसदशो गवयः' 'गवय गायके समान होता है' यह वाक्य सुना है उसको बनमें जानेपर और गवयके देखनेपर गायका स्मरण होता है । फिर यह ज्ञात होता है कि यह प्राणी गायके समान है । इसी सादृश्य ज्ञानको उपमान कहते हैं । नैयायिक और मीमांसक जिसको उपमान कहते हैं, जैन उसको सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।
मां शब्दो नित्य तथा व्यापक मानते हैं । शब्दोंको नित्य होनेसे वेदका कर्ता माननेकी भी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । शब्द और अर्थका सम्बन्ध नित्य तथा स्वाभाविक है । वेदोंमें जो शब्दोंकी क्रम
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