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आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ मैं प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न हूँ तभी तक संसारकी स्थिति है। प्रकृति और पुरुषमें भेदविज्ञान होते ही पुरुष प्रकृतिके संसर्गजन्य आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों प्रकारके दुःखोंसे छट जाता है। वास्तव में बन्ध और मोक्ष प्रकृतिके ही धर्म हैं, पुरुषके नहीं। पुरुष तो स्वभावसे असंग और मुक्त है । इसीलिये ईश्वरकृष्णने कहा है कि पुरुष न तो बन्धका अनुभव करता है, न मोक्षका और न संसारका । किन्तु प्रकृति ही बन्ध, मोक्ष और संसारका अनुभव करती है । प्रत्येक पुरुषकी मुक्तिके लिए ही प्रकृतिका समस्त व्यापार होता है। जिस प्रकार अचेतन दूधकी प्रवृत्ति बछड़ेकी वृद्धिके लिए होती है, उसी प्रकार अचेतन प्रधानकी प्रवृत्ति भी पुरुषके मोक्षके लिए होती है। जिस प्रकार उत्सुकता या इच्छाकी निवत्तिके लिए पुरुष कार्यमें प्रवत्ति करता है उसी प्रकार प्रधान पुरुषके मोक्षके लिए प्रवृत्ति करता है।'
प्रकृति उस नर्तकीके समान है जो रङ्गस्थलमें उपस्थित दर्शकोंके सामने अपनी कलाको दिखलाकर रङ्गस्थलसे दूर हट जाती है। प्रकृति भी पुरुषको अपना व्यापार दिखलाकर पुरुषके सामनेसे हट जाती है । वास्तवमें प्रकृतिसे सुकूमार अन्य कोई दूसरा नहीं है। प्रकृति इतनी लज्जाशील है कि एक बार पुरुषके द्वारा देखे जानेपर पुनः पुरुषके सामने नहीं आती है। अर्थात् पुरुषसे फिर संसर्ग नहीं करती है। प्रकृतिको देव लेनेपर पुरुष उसकी उपेक्षा करने लगता है। तथा पुरुषके द्वारा देखे जानेपर प्रकृति व्यापारसे विरक्त हो जाती है। उस अवस्थामें दोनों
१. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित ।
संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ --सांख्यका ० ६२ । २. प्रतिपुरुषविमोक्षार्थ स्वार्थ इव पदार्थ आरम्भः ।। ३. वत्सविवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य ।
पुरुषविमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥ ४. औत्सुक्यनिवृत्यर्थं यथा क्रियासु प्रवर्तते लोकः ।
पुरुषस्य विमोक्षार्थं प्रवर्तते तदव्यक्तम् ॥ -सांख्यका० ५६-५८ । ५. रङ्गस्य दर्शयित्वा विनिवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् ।
पुरुषस्य तथात्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ -सांख्यका० ५९ । ६. प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिदस्तीति मे मतिर्भवति ।
या दृष्टाऽस्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥ --- सांख्यका० ६१ ।
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