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कारिका-३]
तत्त्वदीपिका वही आँखमें पड़ने पर पीड़ा उत्पन्न करता है । उसीप्रकार आर्यजन ही इन सत्योंका अनुभव करते हैं, अन्य जन तो जीते हैं, मरते हैं, दुःख भी भोगते हैं, फिर भी इन सत्योंके रहस्यको नहीं समझ पाते।
दुःख आर्यसत्य-संसार दुःखमय है । जिधर देखिए उधर ही दुःख दृष्टिगोचर होता है । जन्म, जरा, मरण आदिके दुःख तो हैं ही। इसके अतिरिक्त क्षुधा, तृषा, रोग आदि न जाने कितने दुःखोंसे यह संसार व्याप्त है। जिसे थोड़े समयके लिए हम सुख समझते हैं वह भी यथार्थमें दुःख ही है । इसीका नाम दुःख आर्य सत्य है । इसका ज्ञान आवश्यक है समुदय आर्यसत्य-दुःख जिन कारणोंसे उत्पन्न होता है । उन्हें समुदय कहते हैं। इस प्रकार दुःखके कारणोंका नाम समुदय है । यद्यपि दुःखके कारण अनन्त हैं, लेकिन उनमें तृष्णा ही दुःखका प्रधान कारण है। यही समुदय आर्यसत्य है। निरोध आर्यसत्य-दुःखोंके नाश या अभावको निरोध कहते हैं। अत: जहाँ समस्त द:खोंका अभाव है उस निर्वाण अवस्थाको निरोध आर्यसत्यके नामसे कहा गया है। इस आर्यसत्यका ज्ञान नितान्त आवश्यक है । मार्ग आर्यसत्य-जिस मार्ग पर चलकर यह प्राणी संसारके दुःखोंका नाश कर देता है वह मार्ग आर्यसत्य है। इस मार्गका नाम मध्यम मार्ग तथा आष्टांगिक मार्ग भी है। इसका ज्ञान भी मोक्षके लिए आवश्यक है।
बुद्धने कहा था-हे भिक्षुओ! इन चार आर्यसत्योंका ज्ञान प्राप्त करने पर ही सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है। मैने इन आर्यसत्योंका ज्ञान प्राप्त कर लिया है । अतः मैं सर्वज्ञ हूँ। हमें ऐसे ज्ञानकी आवश्यकता है जिससे संसारका दःख नष्ट हो सके । संसारमें कीड़े-मकोड़ोंकी संख्याका ज्ञान प्राप्त करना उपयोगी नहीं है। जो हेय और उपदेय तत्वोंको उपाय सहित जानता है, वही पुरुष प्रमाणभूत है, वही सर्वज्ञ है। यह आवश्यक नहीं है कि जो दूरकी बात जान सके या देख सके वह सर्वज्ञ हो, किन्तु सर्वज्ञत्वकी प्रातिके लिए इष्ट तत्त्वका ज्ञान आवश्यक है। यदि दूरदर्शीको प्रमाण या सर्वज्ञ
करतलसदृशो बालो न वेत्ति संस्कारदुःखतापक्ष्म । अक्षिसदृशस्तु विद्वान् तेनैवोद्वेजते गाढम् ॥ ऊपक्ष्म यथैव हि करतलसंस्थं न विद्यते पुंभिः । अक्षिगतं तु तदेव हि जनयत्यरतिं च पीडां च ।।
-माध्यमिककारिका वृत्ति पृ० ४७६
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