________________
३९
कारिका-३]
तत्त्वदीपिका अर्थका प्रतिपादन नहीं करते । शब्दोंमें यह शक्ति ही नहीं है कि वे स्वलक्षणको कह सकें। स्वलक्षण और शब्दमें कोई सम्बन्ध नहीं है। एक बात यह भी है कि शब्द अर्थक अभावमें भी देखे जाते हैं । जैसे राम, रावण आदि शब्द । शब्दके द्वारा अर्थकी उपलब्धि भी नहीं होती। अग्नि शब्दके सुननेसे दूसरे प्रकारका ही ज्ञान होता है और अग्निका साक्षात्कार होनेसे भिन्न प्रकारका ज्ञान होता है । घट शब्दमें ऐसी कोई स्वाभाविक शक्ति नहीं है जिसके द्वारा वह कम्बुग्रीवाकार जल धारण समर्थ पदार्थको कह सके । वह तो पुरुषकी इच्छानुसार अन्य संकेतकी अपेक्षासे घोड़े आदिको भी कह सकता है।
अतः शब्दके द्वारा अर्थका कथन न होकर अन्यापोहका कथन होता है । अन्यापोहका अर्थ है अन्य पदार्थोंका निषेध या निराकरण । जब कोई कहता है कि गायको लाओ तो गाय शब्दको सुनने वालेको गाय शब्दके द्वारा सामने खड़ी हुई गायका ज्ञान नहीं होता है। किन्तु अगोव्यावृत्ति (गायसे भिन्न समस्त वस्तुओंका निषेध) का ज्ञान होता है । अर्थात् उसको गायमें गायके अतिरिक्त अन्य समस्त पदार्थोंके अभाव या निषेधका ज्ञान होगा । जैसे यह घोड़ा नहीं है, ऊँट नहीं है, हाथी नहीं है, इत्यादि । अन्तमें वह स्वयं समझ लेगा कि यह गाय है। इसप्रकार शब्द अर्थका वाचक न होकर अन्यापोह (अन्यके निषेध) का वाचक है और अन्यापोह वाच्य है। शब्दोंका पदार्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इस कारण शब्दोंके द्वारा अर्थका प्रतिपादन नहीं होता है। शब्द अर्थके वाचक न होकर केवल वक्ताके अभिप्रायको सूचित करते हैं।
प्रमाणवाद प्रमाण वह है जो सम्यग्ज्ञान हो तथा अपूर्व (अज्ञात) अर्थको विषय
१. यदि घट इत्ययं शब्दः स्वभावादेव कम्बुग्रीवाकारं जलधारणसमर्थं पदार्थमभिदधाति तत्कथं संकेतान्तरमपेक्ष्य पुरुषेच्छया तुरगादिकमभिदध्यात् ।
-तर्कभाषा पृ० ५। २. नान्तरीयकताऽभावाच्छब्दानां वस्तुभिः सह । नार्थसिद्धिस्ततस्ते हि वक्त्रभिप्रायसूचकाः ॥
-प्रमाणवा० ३।२१२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org