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कारिका-३]
तत्त्वदीपिका
सामान्यलक्षण सामान्य पदार्थके विषयमें बौद्धदर्शनकी एक विशिष्ट कल्पना है। बौद्धदर्शन गोत्व, मनुष्यत्व आदिको कोई वास्तविक पदार्थ नहीं मानता है । सामान्य एक कल्पनात्मक वस्तु है । जितने मनुष्य हैं वे सब अमनुष्यसे व्यावृत्त हैं तथा सब एकसा कार्य करते हैं। अतः उनमें एक मनुष्यत्व सामान्यकी कल्पना करली गई है। यही बात गोत्व आदि सामान्यके विषयमें भी जानना चाहिए। नैयायिक-वैशेषिकोंके द्वारा माने गये नित्य, व्यापक, एक, निष्क्रिय और निरंश सामान्यका धर्मकीतिने जो ताकिक खण्डन किया है उसका उत्तर देना नैयायिकोंके लिए आसान काम नहीं है।
एक गायके उत्पन्न होनेपर गोत्व सामान्य उसमें कहाँसे आया ? किसी दूसरे स्थानसे तो गोत्व सामान्य आ नहीं सकता। क्योंकि नैयायिकों द्वारा सामान्य निष्क्रिय माना गया है। यदि ऐसा माना जाय कि समान्य पहलेसे ही वहाँ था, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विना आधार के वहाँ सामान्य कैसे रह सकता है। गायको उत्पन्न होनेके बादमें भी गोत्व सामान्य वहाँ उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि सामान्य नित्य है। ऐसा भी नहीं हो सकता कि दूसरी गायके गोत्व सामान्यका एक अंश इस गायमें आजाय, क्योंकि सामान्य निरंश है। यह भी संभव नहीं है कि पहली गायको पूर्णरूपसे छोड़कर गोत्व सामान्य पूराका पूरा इस गायमें आजाय, क्योंकि ऐसा माननेपर पहली गाय गोत्व रहित होनेसे गाय ही न रह सकेगी। इसप्रकार नैयायिक-वैशेषिक द्वारा माने गये सामान्य अनेक दोष आनेके कारण बौद्ध सामान्यको केवल कल्पनात्मक ही मानते है ।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि सामान्य कल्पनात्मक एवं मिथ्या है तो उसको पदार्थ क्यों माना गया है ? तथा सामान्यको विषय करनेवाले अनुमानको प्रमाण क्यों माना गया है। इसका उत्तर बौद्धोंने इस प्रकार दिया है। यद्यपि सामान्य मिथ्या है, लेकिन वह स्वलक्षणकी प्राप्तिमें कारण होता है । अतः उसको पदार्थ मानना आवश्यक है । यही बात अनुमानको प्रमाण माननेके विषयमें भी है। एक व्यक्तिको मणिप्रभामें मणिबद्धि होती है और दूसरे व्यक्तिको प्रदीपप्रभामें मणि बद्धि होती है। यहाँ हम देखते हैं कि यद्यपि दोनों व्यक्तियोंकी बुद्धियाँ गलत हैं, फिर भी मणिप्रभामें मणिबुद्धि मणिकी प्राप्तिमें कारण होती है। इसलिए
१. न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् ।
जहातिपूर्वमाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥
-प्रमाणवा० १११५३
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