________________
३२
आप्तमीमांसा
माना जाय तो फिर गृद्धोंकी उपासना भी हमें करना चाहिए ।"
मध्यम मार्ग
I
बुद्धने मध्यम मार्गके विषय में बतलाया था कि भिक्षुओंको दो अन्तोंका सेवन नहीं करना चाहिए। किसी भी वस्तुके दोनों अन्त कुमार्गकी ओर ले जाते हैं । सत्य तो दोनों अन्तोंके बीच में ही रहता है । इसी लिए मध्यम मार्ग (बीचका रास्ता ) ही श्रेयस्कर है। किसी भी वस्तुमें अत्यधिक तल्लीनता या उससे अत्यधिक वैराग्य, दोनों ही अनुचित हैं । जिस प्रकार अत्यधिक भोजन करना दुःखदायी है, उसी प्रकार बिलकुल भोजन न करना भी दुःखदायी है । कामासक्ति और देहक्लेश ये दो अन्त हैं । कामों (तृष्णाओं) के त्याग करने को बुद्ध ने पहला कर्तव्य बतलाया । संसारमें तृष्णा ही एक ऐसी वस्तु है जिसके कारण प्रत्येक प्राणी सदा दुःखी रहता है, और बड़े-बड़े राष्ट्र भी इसी तृष्णाके मोहमें पड़कर धरातलमें पहुँच जाते हैं । यदि सब प्राणी तृष्णाका त्याग कर दें तो इसमें संदेह नहीं कि इसी पृथिवीपर स्वर्गका साम्राज्य अथवा सुख और शान्ति प्राप्त हो सकती है | कामासक्तिके त्यागकी तरह कायल्केशके त्याग पर भी बुद्धने जोर दिया है । घोर कायल्केश करने पर भी बुद्धको ज्ञान लाभ नहीं हुआ था । अतः बुद्धने कायक्लेशको निरर्थक समझकर मध्यम मार्गका उपदेश दिया । अर्थात् न तो विषयोंमें लीन होना ही अच्छा है और न अत्यन्त काल्केश ।
अष्टाङ्गमार्ग
मध्यम मार्गके आठ अङ्ग निम्र प्रकार हैं
१. सम्यक् दृष्टि, २. सम्यक् संकल्प, ३ सम्यक् वचन, ४. सम्यक् कर्मान्त, ५. सम्यक् आजीव, ६. सम्यक् व्यायाम, ७ सम्यक् स्मृति, और ८. सम्यक् समाधि, उक्त आठों अंगोंमें सम्यक् विशेषण दिया गया है । दोनों अन्तोंके मध्यमें रहनेका नाम सम्यक् है ।
सम्यष्टि- यहाँ दृष्टिका अर्थ ज्ञान है । कायिक, वाचिक तथा
Jain Education International
[ परिच्छेद- १
हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो नतु सर्वस्य वेदकः || दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तुपश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेत गृधानुपास्महे ||
- प्रमाणवा० १।३४, ३५ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org