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कारिका-३ 1
तत्त्वदीपिका
ज्ञानमीमांसा
सांख्य के अनुसार बुद्धि या ज्ञान जड़ है । पुरुष चेतन तो है किन्तु ज्ञानशून्य है । अत: अनुभवकी उपलब्धि न तो पुरुष में होती है और न बुद्धिमें । जब ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य जगत्के पदार्थोंको बुद्धि के सामने उपस्थित करती हैं तो बुद्धि उपस्थित पदार्थका आकार धारण कर लेती है । इतने पर भी अनुभवकी उपलब्धि तब तक नहीं होती जब तक बुद्धिमें चैतन्यात्मक पुरुपका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता । बुद्धिमें प्रतिबिम्बित पुरुषका पदार्थोंसे सम्पर्क होनेका ही नाम ज्ञान है । बुद्धिमें प्रतिबिम्बित होनेपर ही पुरुषको ज्ञाता कहा जाता है ।
सांख्यदर्शनमें तीन प्रमाण माने गये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द । विपर्यय ज्ञानको सांख्य सदसत्ख्याति कहते हैं । शुक्तिमें रजतका ज्ञान होना विपर्यय ज्ञान है । यहाँ शुक्ति सत् है और रजत असत् है । अतः विपर्यय ज्ञानमें सत् और असत् दोनोंका प्रतिभास होता है । सांख्यदर्शन ज्ञानकी प्रमाणता और अप्रमाणताको स्वतः स्वीकार करता है' ।
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ईश्वर
सांख्यदर्शन ईश्वरको नहीं मानता है । अन्य दर्शनोंने ईश्वरको जगत्का कर्ता मानकर उसके सद्भावको सिद्ध किया है । ईश्वरजन्य जो कार्य हैं, वे सब कार्य सांख्यमत में प्रकृतिके द्वारा निष्पन्न होते हैं । अतः सृष्टि करनेवाले ईश्वरके माननेकी इस मतमें कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । दूसरी बात यह भी है कि किसी प्रमाणसे ईश्वरकी सिद्धि नहीं होती है । इसलिए ईश्वरको मानना उचित नहीं है । यहाँ इतना विशेष है कि उपनिषद्कालीन सांख्य ईश्वरवादका समर्थक है। ब्रह्मसूत्रमें निर्दिष्ट तथा सांख्यकारिकामें वर्णित सांख्य निरीश्वरवादी है । किन्तु विज्ञानभिक्षु ने सांख्यदर्शनसे निरीश्वरवादके लांछनको दूर करके पुनः ईश्वरवाद की प्रतिष्ठा की है ।
मुक्ति
प्रकृति और पुरुष के संसर्गका नाम ही संसार है । जबतक प्रकृति और पुरुषमें भेदविज्ञान नहीं होता, जबतक पुरुष यह नहीं समझता है कि १. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः साख्याः समाश्रिताः । स० द० सं० पृ० १०६ । २. ईश्वरासिद्धेः । सां० सू० ११९२ | प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः ।
- सां० सू० ५1१० ।
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