________________
२४
आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
है । सांख्यका कहना है कि कार्य उत्पत्तिके पहले भी कारण में अव्यक्तरूपसे विद्यमान रहता है । तेल तिलोंमें और दधि दूधमें विद्यमान रहता है । तभी तो तिलोंसे तेलकी और दूधसे दधिकी उत्पत्ति देखी जाती है । सत्कार्यवादको सिद्ध करनेके लिए निम्न युक्तियाँ दी गयी हैं ।
१. असत् वस्तुकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है । यदि कार्य उत्पत्तिसे पहले कारणमें न रहता तो असत् पदार्थ 'आकाशकमल' की भी उत्पत्ति होनी चाहिए । २. कार्यकी उत्पत्तिके लिए उपादानका ग्रहण किया जाता है, जैसे तेलकी उत्पत्तिके लिए तिलोंका ही ग्रहण किया जाता है बालुका नहीं । यदि कार्य कारणमें सत् न होता तो कोई भी कार्य किसी भी कारण से उत्पन्न हो जाता । ३. सब कारणोंसे सब कार्योंकी उत्पत्ति संभव नहीं है । अतः प्रतिनियत कारणसे प्रतिनियत कार्यकी ही उत्पत्ति होनेसे कार्य सत् है । ४. समर्थ करणसे ही कार्यकी उत्पत्ति देखी जाती है, असमर्थ से नहीं । ५. यह भी देखा जाता है कि कारण जैसा होता है कार्य भी वैसा ही होता है । कारण और कार्य में ऐक्य है । गेहूँसे गेहूँकी ही उत्पत्ति होती हैं, चनाकी नहीं । अतः उपर्युक्त कारणोंसे यह सिद्ध होता है कि वस्त्र उत्पन्न होनेके पहले तन्तुओंमें विद्यमान रहता है और घट उत्पन्न होने के पहले मिट्टी में विद्यमान रहता है । यही सत्कार्यवाद है ।
सृष्टिक्रम
प्रकृति और पुरुष के संयोगसे ही जगत् की सृष्टि होती है' । प्रकृति जड़ है और पुरुष निष्क्रिय । अतः पृथक्-पृथक् दोनोंसे जगत्की सृष्टि होना संभव नहीं है। सृष्टिके लिए दोनोंका संयोग आवश्यक है । जिस प्रकार एक अन्धा और एक लंगड़ा पुरुष पृथक्-पृथक् रहें तो किसीका कार्य सिद्ध नहीं हो सकता और दोनों का संयोग हो जानेपर उनके कार्यकी सिद्धि सरलतापूर्वक हो जाती है । उसी प्रकार प्रकृति अचेतन होनेसे अन्धी है और पुरुष निष्क्रिय होनेसे लंगड़ा है । अतः सृष्टिके लिए दोनोंका संयोग परमावश्यक है । पुरुषकी सन्निधिमात्र से प्रकृति कार्य करनेप्रवृत्त हो जाती है ।
१. असदकारणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् । २. पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- सांख्यका० ९ ।
-7
-- सांख्यका० २१ ।
www.jainelibrary.org