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कारिका-३]
तत्त्वदीपिका इतना है कि इस ब्राह्मणमें विद्याचरणका होना संभव है। किन्तु दूसरा व्यक्ति छलसे कहता है कि यदि इस ब्राह्मणमें विद्याचरणका होना संभव है तो व्रात्यमें भी संभव है क्योंकि व्रात्य भी ब्राह्मण है। उपनयन आदि संस्कारोंसे रहित ब्राह्मणको व्रात्य कहते है । यहाँ ब्राह्मणत्व अति सामान्य धर्म है, क्योंकि वह विद्याचरण सम्पन्न ब्राह्मणमें पाया जाता है तथा व्रात्यमें भी पाया जाता है।।
धर्मके विकल्प द्वारा निर्देश करनेपर अर्थके सद्भावका निषेध करना उपचार छल है । जैसे 'मञ्च शब्द कर रहा है' ऐसा कहने पर दूसरा व्याक्ति कहता है कि मञ्च शब्द नहीं कर सकता, किन्तु मञ्चपर स्थित पुरुष शब्द करता है। यहाँ 'मञ्च शब्द कर रहा है' यह वाक्य यद्यपि लक्षणाधर्मके विकल्पसे कहा गया है, फिर भी दूसरा व्यक्ति शक्तिधर्मके विकल्पसे उसका निषेध करता है। अतः यह उपचार छल है।
जाति-- साधर्म्य दिखाकर किसी वस्तुकी सिद्धि करनेपर उसी साधर्म्य द्वारा उसका निषेध करना या वैधर्म्य द्वारा किसी वस्तुकी सिद्धि करनेपर उसी वैधर्म्य द्वारा उसका निषेध करना जाति कहलाती है। जातिके २४ भेद हैं-साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, प्रसङ्गसमा, प्रतिदृष्टान्तसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपत्तिसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, नित्यसमा, अनित्यसमा और कार्यसमा । ____ आत्मा क्रियावान् है क्योंकि उसमें क्रियाका कारणभूत गुण पाया जाता है । जैसे पत्थर में क्रियाका कारणभूत गुण होनेसे वह क्रियावान् है। ऐसा कहने पर दूसरा व्यक्ति कहता है कि आत्मा निष्क्रिय है। क्योंकि विभुद्रव्य निष्क्रिय देखा जाता है, जैसे कि आकाश । यहाँ पत्थरके साधर्म्यसे आत्मामें क्रियावत्व सिद्ध करनेपर आकाशके साधर्म्यसे आत्मामें निष्क्रियत्व सिद्ध करना साधर्म्यसमा जाति है ।
निग्रहस्थान-पराजयप्राप्तिका नाम निग्रहस्थान है। यह दो प्रकारसे होता है। कहीं विप्रतिपत्तिसे और कहीं प्रतिपत्तिके न होनेसे । विप्रतिपत्तिका उदाहरण—किसी एक व्यक्तिने कहा कि शब्द अनित्य है, क्योंकि १. साधर्म्यवैधााभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः। -न्या० सू० १।२।१८ । २. विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् । -न्या० सू० १।१।१९ ।
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