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कारिका - ३ ]
मुक्तिको नहीं चाहता हूँ' ।
तत्त्वदीपिका
वैशेषिकदर्शन
'विशेष' नामक एक विशिष्ट पदार्थ माननेके कारण इस दर्शनको वैशेषिकदर्शन कहते हैं । 'वैशेषिकसूत्र' के रचयिता कणाद ऋषि इस दर्शनके प्रमुख आचार्य हैं । वैशेषिकसूत्र दश अध्यायोंमें विभक्त है और प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं ।
वैशेषिकदर्शन सात पदार्थोंको मानता है जिनमें द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छह पदार्थ तो भावात्मक हैं और अभाव नामक सातवाँ पदार्थ अभावात्मक है ।
द्रव्य
जिसमें गुण और क्रिया पायी जाय तथा जो कार्यका समवायीकारण हो वह द्रव्य है' । द्रव्यके नौ भेद हैं- पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन । मीमांसक ( भाट्ट) तमको भी एक पृथक् द्रव्य मानते हैं । लेकिन वैशेषिकोंने तमको पृथक् द्रव्य नहीं माना है । उनका कहना है कि तेजके अभावका नाम ही तम है । आत्मा, काल, दिशा और आकाश ये चार द्रव्य व्यापक हैं, शेष द्रव्य अव्यापक हैं। आत्मा आदि उक्त चार व्यापक द्रव्य और मन ये पाँचों द्रव्य नित्य हैं । पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार द्रव्य नित्य और अनित्य दोनों प्रकारके हैं । परमाणु अवस्थामें पृथिवी आदि नित्य हैं और कार्यदशा में अनित्य हैं । गन्ध पृथिवीका विशेष गुण है, रस जलका विशेष गुण है, रूप तेजका विशेष गुण है, स्पर्श वायुका विशेष गुण है, और शब्द आकाशका विशेष गुण है । बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार ये नौ आत्मा विशेष गुण हैं । आत्मा शरीर तथा इन्द्रियोंसे भिन्न एक स्वतंत्र द्रव्य है । मन आणुरूप है । तथा प्रत्येक शरीरमें भिन्न-भिन्न होनेसे अनेक है ।
१. वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् । वैशेषिकोक्तमोक्षातु सुखलेशविवर्जितात् ||
२. क्रियागुणवत् समवायिकारणमित्तिद्रव्यलक्षणम् ३. साक्षात्कारे सुखादीदां करणं मन उच्यते ।
- आयोगपद्याच्च ज्ञानानां तस्याणुत्वमिष्यते ।।
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- स० सि० सं० पृ० २८ । - वैशे० सू० १।१।१५ ।
—कारिकावली-८५ ।
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