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आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद- १
परमाणुका लक्षण निम्न प्रकार से बतलाया गया है । घरमें छतके छेदसे जब सूर्य की किरणें प्रवेश करती हैं तब उनमें जो छोटे-छोटे कण दृष्टिगोचर होते हैं वे ही त्रसरेणु हैं और उनका छठवां भाग परमाणु कहलाता है' । परमाणु तथा द्वयणुकका परिमाण अणु होनेसे उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है । और महत् परिमाण होनेके कारण त्रसरेणुका प्रत्यक्ष होता है ।
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वैशेषिक ज्ञानमीमांसा
ज्ञान सामान्यरूपसे दो प्रकारका है -विद्या और अविद्या । अविद्याके चार भेद हैं-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न । विद्याके भी चार भेद हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्ष । वैशेषिक उपमान तथा शब्दको स्वतंत्र प्रमाण न मानकर अनुमान के अन्तर्गत ही मानते हैं । ऋषियोंको अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रतिभाजन्य जो ज्ञान होता है वह आर्ष कहलाता है । प्रशस्तपादके मतसे स्वप्नके तीन कारण होते हैं - संस्कारपाटव, धातुदोष और अदृष्ट । कामी या क्रोधी पुरुष जिस विषयका चिन्तन करता हुआ सोता है वह स्वप्नमें उसी विषयको देखता है । वातप्रकृतिवाला व्यक्ति आकाशमें गमन आदि, पित्तप्रकृतिवाला व्यक्ति अग्निप्रवेश आदि और कफप्रकृतिवाला व्यक्ति समुद्र आदिका स्वप्न देखता है । अदृष्टसे भी विचित्र स्वप्नोंका उदय होता है ।
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ईश्वर
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वैशेषिकदर्शनमें ईश्वरकी सत्ता मानी गयी है या नहीं ? इस प्रश्नके विषय में कोई निश्चित मत नहीं है वैशेषिक सूत्रोंमें केवल दो सूत्र ऐसे हैं जो ईश्वरकी ओर संकेत करते हैं, किन्तु इनकी व्याख्या में मतभेद है | ' तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्' (वै० सू० १|१|३ ) में तद् शब्द ईश्वरका बोधक माना गया है, परन्तु वह धर्मका भी बोधक हो सकता है | इसी प्रकार 'संज्ञा कर्मत्वस्मद्विशिष्टानां लिङ्गम' ( वे० सू० २1१1१८ ) में अस्मद्विशिष्ट शब्द ईश्वरके समान योगियोंका भी बोधक माना जा सकता है । अतः वैशेषिकसूत्रमें ईश्वरका स्पष्ट निर्देश न होनेपर भी प्रशस्तपादसे लेकर अवान्तरकालीन ग्रन्थकार ईश्वरकी सिद्धि एक मतसे स्वीकार करते हैं । वैशेषिकदर्शनके प्रथम सूत्रसे ही ज्ञात होता है कि महर्षि
१. जालान्तरगते भानोः यत् सूक्ष्मं दृश्यते रजः ।
तस्य षष्ठतमो भागः परमाणुः स उच्यते ॥
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