________________
आप्तमीमांसा
[ परिच्छेद-१ हादि महोदयके द्वारा स्तुत्य नहीं हूँ तो मोक्षमार्गरूप धर्मतीर्थका प्रवर्तन करनेके कारण मुझे स्तुत्य मान लीजिए। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैंतीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥
कपिल, सुगत आदि तीर्थङ्करोंके आगमोंमें परस्पर विरोध पाये जानेकारणके सब तीर्थङ्करोंमें आप्तत्व संभव नहीं है । अतः उनमेंसे कोई एक ही हमारा स्तुत्य हो सकता है ।
हम धर्मरूपी तीर्थको करने या चलानेके कारण भी आप्तको स्तुत्य नहीं मान सकते । जिस प्रकार 'जिन'ने तीर्थको प्रचलित किया है उसी प्रकार 'सुगत' आदिने भी आगमरूप तीर्थको प्रचलित किया है। जिस प्रकार 'जिन'में तीर्थकर व्यपदेश होता है उसी प्रकार सुगत, कपिल आदिमें भी तीर्थकर व्यपदेश होता है। अतः यदि तीर्थको करनेके कारण 'जिन'को स्तुत्य मानें तो सुगत आदिको भी स्तुत्य मानना चाहिए।
यहाँ कोई कह सकता है कि जितने तीर्थको करनेवाले हैं उन सबको महान् मान लेने में क्या हानि है ? इसका उत्तर यह है कि सब सर्वदर्शी या सर्वज्ञ नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उन्होंने परस्पर विरुद्ध बातोंका कथन किया है। तीर्थको करनेवालोंके जो समय या आगम हैं उनमें परस्परमें विरोध पाया जाता है। कुमारिलने कहा भी है
सुगतो यदि सर्वज्ञो कपिलो नेति का प्रमा।
तावुभौ यदि सर्वज्ञो मतभेदः कथं तयोः ॥ सुगत यदि सर्वज्ञ है तो कपिलके सर्वज्ञ न होनेमें क्या प्रमाण है । और यदि दोनों ही सर्वज्ञ हैं तो फिर उन दोनोंमें मतभेद क्यों है ।
अतः सबमें आप्तपना संभव नहीं है। यही कारण है कि उनमेंसे कोई भी महान् या स्तुत्य नहीं हो सकता है।
न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और बौद्ध ये दर्शन सर्वज्ञ या ईश्वरको मानते हैं। मीमांसा आदि कुछ दर्शन ऐसे भी हैं जो ईश्वरको नहीं मानते हैं।
अब हम पहले सर्वज्ञको माननेवाले दर्शनोंका संक्षेपमें वर्णन करेंगे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org