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कारिका-३ ]
तत्त्वदीपिका
न्याय दर्शन न्यायका' अर्थ है विभिन्न प्रमाणों द्वारा वस्तुतत्त्वकी परीक्षा करना । इन प्रमाणोंके स्वरूपके वर्णन करनेके कारण यह दर्शन न्यायदर्शन कहलाता है। प्रमाणोंके द्वारा प्रमेयवस्तुका विचार करना और प्रमाणोंका विस्तृत विवेचन करना न्यायदर्शनका प्रधान उद्देश्य है। महर्षि गौतम न्याय दर्शनके संस्थापक हैं । इन्होंने न्यायसूत्रमें न्यायदर्शनके प्रमुख तत्त्वोंका प्रतिपादन किया है। न्यायसूत्र ५ अध्यायोंमें विभक्त है और प्रत्येक अध्यायमें २ आह्निक हैं । न्यायसूत्रका प्रथम सूत्र इस प्रकार है
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानाद् निःश्रेयसाधिगमः ।
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह सत् पदार्थोके तत्त्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । अतः इन सोलह पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।
प्रमाण-प्रमाके करणको प्रमाण कहते हैं। प्रमाण चार हैं:--प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्द ।
प्रमेय-आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग ये बारह प्रकारके प्रमेय हैं । इन प्रमेयोंका ज्ञान मोक्षके लिए आवश्यक है।
संशय-समान धर्मोंकी उपलब्धि होनेसे, अनेकके धर्मकी उपलब्धि होनेसे, किसी विषयमें विवाद होनेसे, उपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे और अनुपलब्धिकी व्यवस्था न होनेसे विशेष धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला विचार संशय कहलाता है।
१. प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः ।
--वात्स्यायनन्या. भा० १११।१ । २. प्रमाकरणं प्रमाणम् ।
--तर्कभाषा, पृ० ३। ३. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ।
-न्या० सू० १११।३।। ४. आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ।
-न्या० सू० १।१।९। ५. समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः ।
--न्या० सू० १।१।२३ ।
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