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इस श्लोक में भी श्लेषके द्वारा विद्यानन्दके नामका बोध होता है । जिसने समस्त एकान्त शासनोंका निरास कर दिया है ऐसा महावीर तथा विद्यानन्दका शासन है । अर्थात् विद्यानन्दने समस्त एकान्तोंका निराकरण करके महावीर के शासनको अनेकान्तरूप सिद्ध किया है । विद्यानन्दका परिचय
प्रस्तावना
ऐसे प्रख्यात और प्रतिभाशाली आचार्यका कुछ भी परिचय उनके ग्रन्थोंमें नहीं मिलता है । अनुमान किया जाता है कि इनका जन्म दक्षिण भारत के किसी प्रदेशमें, संभवत: मैसूर में ब्राह्मण कुल में हुआ होगा । इन्होंने नन्दिसंघके किसी जैन मुनि द्वारा जैन साधुकी दीक्षा ग्रहण की थी । क्योंकि एक शिलालेख में नन्दिसंघके मुनियोंमें विद्यान्दको भी गिनाया है । आचार्य विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थोंमें भर्तृहरि कुमारिल, प्रभाकर, धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, मण्डनमिश्र, सुरेश्वर आदिका खण्डन किया है | अतः विद्यानन्दका समय इन सबके बादका सिद्ध होता है ।
आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वाथश्लोकवार्तिक के अन्त में प्रशस्ति रूपमें एक पद्य दिया है, जिसकी एक पंक्ति निम्न प्रकार है
'जीयात् सज्जनताश्रयः शिवसुधाधारावधानप्रभुः '
इसके द्वारा विद्यानन्दने ' शिवमार्ग' - - मोक्षमार्गका जयकार तो किया ही है, साथ ही अपने समय के गङ्गनरेश शिवमार द्वितीयका भी जयकार किया है, ऐसा प्रतीत होता है । शिवमार द्वितीय पश्चिमी गंगवंशी श्रीपुरुष नरेशका उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ईस्वी सन् ८१० के लगभग राज्याधिकारी हुआ था । इस शिवमारका भतीजा तथा विजयादित्यका पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम शिवमारके राज्यका उत्तराधिकारी हुआ था तथा ईस्वी सन् ८१६ के लगभग राजगद्दी पर बैठा था । विद्यानन्द ने अपने अन्य ग्रंथों में ' 'सत्यवाक्य' के नामसे उसका उल्लेख किया है, ऐसा अनुमान किया जाता है । उक्त उल्लेखोंसे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य विद्यानन्द गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय
१. शश्वत्संस्तुतिगोचरोऽनघधियां श्रीसत्यवाक्याधिपः ।
विद्यानन्द बुधैरलंकृतमिदं श्री सत्यवाक्याधिपैः ॥
-- युक्तयनुशासनालंकारप्रशस्ति । सत्यवाक्याधिपाः शश्वद्विद्यानन्दा जिनेश्वराः । - प्रमाणपरीक्षा मंगलपद्य
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