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__ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका इस प्रकार आचार्य समन्तभद्रने युक्तिके द्वारा सर्वज्ञको सिद्ध किया है। और उनके उत्तरवर्ती अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य आदि प्रख्यात दार्शनिकोंने समन्तभद्रकी शैलीमें ही सर्वज्ञताका पूरा पूरा समर्थन किया है । अकलंकदेवने न्यायविनिश्चयमें बतलाया है कि आत्मामें समस्त पदार्थोंको जाननेकी पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्थामें उसका ज्ञान ज्ञानावरण कर्मसे आवृत रहता है, अतः उसका पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता। किन्तु जब ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्मका पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस ज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोंके जानने में क्या बाधा है। अकलंकदेवने सर्वज्ञसाधक अन्य भी कई तर्क प्रस्तुत किये हैं। उनमेंसे एक महत्त्वपूर्ण तर्क यह है कि सर्वज्ञके बाधक प्रमाणोंका असंभव सुनिश्चित होनेसे सर्वज्ञकी सत्तामें कोई संदेह नहीं है । आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें एक श्लोक उद्धत करके बतलाया है कि आत्माका स्वभाव जाननेका है और जाननेमें जब कोई प्रतिबन्ध न रहे तब वह ज्ञेय पदार्थोमें अज्ञ (न जाननेवाला) कैसे रह सकता है। जैसे अग्निका स्वभाव जलानेका है तो कोई प्रतिबन्धक न रहने पर वह दाह्य पदार्थको जलायेगी ही। उसी प्रकार ज्ञस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकके अभाव में सब पदार्थोंको जानेगा ही। आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें लिखा है कि कोई आत्मा सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात्कार करने वाला है। क्योंकि उसका स्वभाव उनको ग्रहण करनेका है और उसमें प्रतिबन्धके कारण नष्ट हो गये है। जिस प्रकार चक्षका स्वभाव रूपके साक्षात्कार करनेका है और रूपके साक्षात्कार करने में प्रतिबन्धक कारणों (तिमिरादि)के अभावमें चक्ष रूपका साक्षात्कार अवश्य करती है, उसी प्रकार ज्ञानके प्रतिबन्धक कारणों के अभावमें आत्मा भी समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार अवश्य करता है। १. दृष्टव्य-न्यायविनिश्चय का० न० ३६१, ३६२, ४१०,४१४, ४६५ । २. अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चिताम्भवद्बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् ।
-सिद्धिवि० टी० पृ० ४२१ ३. जो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने ।
दाह्य ऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धने || -अष्टस० पृ० ५० ४. कश्चिदात्मा सकलपदार्थसाक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभाववत्वे सति प्रक्षीणप्रतिब
न्धप्रत्ययत्वात्, यद् यद्ग्रहणस्वभाववत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययं तत्तत्साक्षात्कारि, यथापगततिमिरादिप्रतिबन्धं लोचनविज्ञानं रूपसाक्षात्कारि, तद्ग्रहणस्वभाववत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययश्च कश्चिदात्मेति ।
-प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० २५५
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