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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका प्रमाणपरीक्षामें लिखा है कि अभ्यास होनेसे प्रामाण्य स्वतः सिद्ध हो जाता है, और अनभ्यासके कारण प्रामाण्यका निर्णय परसे होता है। इसी बातको आचार्य माणिक्यनन्दिने परीक्षामुखमें कहा है कि कहीं प्रामाण्य का ज्ञान स्वतः होता है और कहीं परतः होता है । अर्थात् अभ्यस्त अवस्थामें तो जलज्ञानके प्रामाण्यका निर्णय स्वयं हो जाता है और अनभ्यस्त अवस्थामें शीतल वायुका स्पर्श, कमलोंकी सुगन्ध, मेढकोंका शब्द आदि पर निमित्तोंसे जलज्ञानकी सत्यताका निर्णय किया जाता है।
प्रामाण्य और अप्रामाण्यके ज्ञानके विषयमें अन्य दार्शनिकोंमें विवाद है । न्याय-वैशेषिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनोंको परतः, सांख्य दोनोंको स्वतः तथा मीमांसक प्रामाण्यको स्वतः और अप्रामाण्यको परतः मानते हैं। मीमांसकोंका कहना है कि जिन कारणोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है उनके अतिरिक्त अन्य किसी कारणकी प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें अपेक्षा नहीं होती है। उनके अनुसार प्रत्येक ज्ञान पहले प्रमाण ही उत्पन्न होता है । बादमें यदि ज्ञानके कारणोंमें दोषज्ञान अथवा बाधक प्रत्ययके द्वारा उसकी प्रमाणता दूर कर दी जाय तो वह अप्रमाण कहलाने लगता है। अतः जब तक कारणोंमें दोषज्ञान अथवा बाधक प्रत्ययका उदय न हो तब तक सब ज्ञान प्रमाण ही हैं। अतः ज्ञानमें प्रामाण्य स्वतः ही होता है। किन्तु अप्रामाण्ममें ऐसी बात नहीं है। अप्रामाण्यकी उत्पत्ति तो परतः ही होती है। क्योंकि उसमें ज्ञानके कारणोंके अतिरिक्त दोषरूप सामग्रीकी अपेक्षा होती है।
तत्त्वसंग्रहके टीकाकार कमलशीलने बौद्धोंका पक्ष अनियमवादके रूपमें बतलाया है। वे कहते हैं 'प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः, दोनों परतः, प्रामाण्य स्वतः अप्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः प्रामाण्य परतः' इन चार नियम पक्षोंसे अतिरिक्त पाँचवाँ अनियम पक्ष भी है, जो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनोंको अवस्थाविशेषमें स्वतः और अवस्थाविशेषमें परतः माननेका है । यही पक्ष बौद्धोंको इष्ट है। १. प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात् परतोऽन्यथा।
प्रमाणपरीक्षा २. तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ।
परीक्षामुख १११३ ३. नहि बौद्धरेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टः, अनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि-उभयमप्येतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति पूर्वमुपणितम् । अतएव पक्षचतुष्टयोपन्यासोऽप्ययुक्तः । पञ्चमस्यानियमपक्षस्य संभवात् ।
-तत्वसं० १० का० ३१२३
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