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प्रस्तावना
अपूर्व अर्थके व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाण कहा है ' । किन्तु उत्तरकालीन जैन आचार्योंने प्रमाणका लक्षण करते समय सम्यग्ज्ञान या सम्यक् अर्थ निर्णयको ही प्रमाण माना है।
इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्रमाणके विभिन्न लक्षणोंसे यही फलित होता है कि प्रमाणको अविसंवादी या सम्यक् होना चाहिए। इस सम्यक् विशेषणमें ही अन्य सब विशेषण अन्तर्भूत हो जाते हैं । प्रमाणके विषयमें विशेष बात यही है कि ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, अज्ञानरूप सन्निकर्षादि नहीं । ज्ञान स्वसंवेदी होता है। और स्वको नहीं जाननेवाला ज्ञान परको भी नहीं जान सकता है। अतः मीमांसकोंका परोक्षज्ञानवाद ठीक नहीं है । प्रमाणको व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) भी होना चाहिए। जो स्वयं अनिश्चयात्मक है वह प्रमाण कैसे हो सकता है। बौद्धोंके द्वारा माना गया कल्पनापोढ ( कल्पनारहित) प्रत्यक्ष ज्ञान अनिश्चयात्मक होनेसे प्रमाण ही नहीं हो सकता है। उसके प्रत्यक्ष होनेकी बात तो दूर ही है। प्रमाणके भेद
जैन दर्शनमें प्रमाणके दो भेद किये है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । मति, श्रुत अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानोंका प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंके रूपमें विभाजन आगमिक परम्परामें पहलेसे ही रहा है । प्रथम दो ज्ञान परोक्ष तथा शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधका अन्तर्भाव भी मतिज्ञानमें ही किया गया है। आगममें प्रत्यक्षता और परोक्षताका आधार भी दार्शनिक परम्परासे भिन्न है। आगमिक परिभाषामें इन्द्रिय और मनकी सहायताके विना आत्मामात्रकी अपेक्षासे उत्पन्न होने वाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । ‘अक्षं प्रतिगतं प्रत्यक्षम्' यहाँ अक्षका अर्थ आत्मा किया गया है। और जिस ज्ञानमें इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि बाह्य साधनोंकी अपेक्षा होती है वह ज्ञान परोक्ष है। आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें प्रत्यक्ष और परोक्षकी यही परि
१. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् । २. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।
सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् । ३. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा।
परीक्षामुख ११ न्यायदी० पृ० ३ प्रमाणमी० १५११२ सर्वार्थसि० पृ० ५९
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