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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
इसके अनन्तर आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें आत्माकी सर्वज्ञताको सम्यक् रूपसे सिद्ध किया है । उन्होंने इसकी विशद व्याख्या करते हुए केवलज्ञानको त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्योंको जाननेवाला बतलाकर यह भी कहा है कि जो अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जान सकता है, और जो सबको नहीं जानता वह अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्यको पूरी तरह कैसे जान सकता है' । आचार्य गृद्धपिच्छने भी केवलज्ञानका विषय समस्त द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको बतलाया है । इस प्रकार जैनाचार्योंने आगम में सर्वज्ञके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादन किया है | आत्मज्ञ और सर्वज्ञ
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कोई कह सकता है कि मोक्षमार्गका उपदेश देनेके लिए सर्वज्ञ होनेकी क्या आवश्यकता है । मोक्षमार्गका उपदेश देनेके लिए तो आत्मज्ञ होना ही पर्याप्त है । इसके उत्तर में यह कहा गया है कि जो एकको जानता है वह सबको जानता है । आत्मा ज्ञानमय है और ज्ञानमय होनेके नाते उसका सम्बन्ध समस्त ज्ञेयोंसे है । अतः अनन्त द्रव्योंके ज्ञायक स्वरूप आत्माको जानना ही सबको जानना है । आत्मज्ञ होनेसे सर्वज्ञता स्वतः प्राप्त हो जाती है । इसका तात्पर्य यही है कि आत्मज्ञतामेंसे सर्वज्ञता फलित होती है । आत्माको जानना मुख्य है और आत्माको जाननेसे सबका ज्ञान स्वयं प्राप्त हो जाता है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारमें बतलाया है कि केवली भगवान् व्यवहारनयसे समस्त पदार्थों को जानते और देखते हैं, परन्तु निश्चयनयसे वे आत्मस्वरूपको ही जानते और देखते हैं । यहाँ कोई भ्रमवश ऐसा न समझ ले कि आचार्य कुन्दकुन्दने केवलज्ञानीको मात्र आत्मज्ञानी माना है । उनके मत से आत्मज्ञ १. जो ण विजाणादि जुगवं अत्थे तेकालिके तिहुवणत्थे ।
दुं तत ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेकं वा ॥ दव्यमणंतप्पज्जयमेकमणंताणि दव्वजादाणि ।
णवि जाणदि जदि जुगवं कध सो दव्वाणि जाणादि ||
२. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।
३.
- प्रवचनसार ११४८, ४९ —तत्त्वार्थसूत्र १।२९
जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥
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- नियमसार ( शुद्धोपयोगाधिकार ) गा० १५८
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