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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका इसी प्रकार आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रके पाँचवें अध्यायके 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस सूत्रकी व्याख्यामें सिद्धसेनकी तरह गुण और पर्यायमें अभेद मान कर भी एक ऐसा तथ्य फलित किया है जो अनेकान्तदर्शनके इतिहासमें उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है कि सहानेकान्तकी सिद्धिके लिए 'गुणवद् द्रव्यम्' कहा है, तथा क्रमानेकान्तके बोधके लिए 'पर्यायवद् द्रव्यम्' कहा गया है। अर्थात् अनेकान्त दो प्रकारका है-सहानेकान्त और क्रमानेकान्त । गुण सहभावी होते हैं और पर्याय क्रमभावो। अतः एकसे सहानेकान्त फलित होता है और दूसरेसे क्रमानेकान्त ।।
आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें अनेक प्रसिद्ध दार्शनिकोंके ग्रन्थोंसे नामोल्लेख पूर्वक और विना नामोल्लेखके भी अनेक उद्धरण दिये हैं। तदुक्त भट्टेन अथवा तदुक्तं लिख कर कुमारिलकी मीमांसाश्लोकवार्तिक के अनेक श्लोकोंको उद्धृत किया गया है। धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिकसे अनेक श्लोकोंको उद्धृत करके उनके सिद्धान्तोंकी समालोचना की गयी है धर्मकीर्तिके टोकाकार प्रज्ञाकरकी भी कई बार नाम लेकर समालोचना को है। भर्तृहरिके वाक्यपदीयसे 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके' इत्यादि श्लोक, शंकराचार्यके शिष्य सुरेश्वरके बृहदारण्यकवार्तिकसे 'आत्मापि सदिदं ब्रह्म' इत्यादि श्लोक, तथा ईश्वरकृष्णको सांख्यकारिकासे भी कई श्लोक उद्धृत किये गये हैं। ___ महाभारत वनपर्वसे 'तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः' इत्यादि श्लोक (पृ० ३६ पर) उद्धृत है। ज्ञानश्रीमित्रकी अपोहसिद्धिसे 'अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते' यह श्लोकांश ( पृ० १३० पर ) उद्धृत है । गौतमके न्यायसूत्रसे 'दुःखजन्मप्रवृति' इत्यादि सूत्र (पृ० १६३ पर) उद्धृत है । शाबरभाष्यसे 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तम्' इत्यादि तथा ज्ञाते त्वर्थेऽनुमानादवगच्छति बुद्धिम्' (पृ० ४९ तथा ५८ पर) उद्धृत है। योगदर्शनसे 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' (पृ० १७८ पर) तथा 'बुद्धयवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते' (पृ० ६६ पर) उद्धृत है । अकलंकके न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रहआदि ग्रन्थोंसे अनेक श्लोक उद्धृत हैं। आचार्य कुन्द-कुन्दके पञ्चास्तिकायसे 'सत्ता सव्वपयत्था' इत्यादि गाथाकी संस्कृत छाया (पृ० ११३ पर) उद्धृत है। तत्त्वार्थसूत्रसे अनेक सूत्र उद्धृत हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकसे भी अनेक श्लोकोंको उद्धृत किया गया है। १. गुणवद्रव्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये ।
तथा पर्यायवद्रव्यं क्रमानेकान्तवित्तये ।। -त० श्लो० वा० पृ० ४३८
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