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प्रस्तावना
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है। जिस चित्तने न हिंसाका अभिप्राय किया और न हिंसाकी, वह बन्ध को प्राप्त होता है, और जो बन्धको प्राप्त हुआ है वह मुक्त नहीं होता है । ५२वीं कारिकामें निर्हेतुक विनाश मानने वाले बौद्धोंकी आलोचना की गयी है। नाशका कोई कारण न होनेसे हिंसक प्राणीको हिंसाका कारण नहीं माना सकता और चित्त सन्ततिके नाशरूप जो मोक्ष है वह अष्टांगहेतुक नहीं हो सकता है। ५३वीं कारिका द्वारा कहा गया है कि विसदश कार्यकी उत्पत्तिके लिए हेतुका समागम मानना ठीक नहीं है। क्योंकि हेतु समागम नाश और उत्पाद दोनोंका कारण होनेसे दोनोंसे अभिन्न है। ५४वीं कारिकामें बतलाया है कि स्कंधोंकी संततियाँ भी संवृतिसत् होनेसे अकार्यरूप हैं। अतः उनमें खरविषाणकी तरह स्थिति, उत्पत्ति और व्यय नहीं बन सकते हैं। ५५वीं कारिकामें बतलाया गया है कि विरोध आनेके कारण नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों एकान्तोंका ऐकात्म्य (उभयकान्त) नहीं बन सकता है। और अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दके द्वारा वस्तुका कथन नहीं हो सकता है । ५६वीं कारिका द्वारा कहा गया है कि 'यह वही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होनेसे वस्तु कथंचित् नित्य है और कालभेद होनेसे कथंचित् अनित्य है। ५७वीं कारिकामें यह कहा है कि सामान्यसे न तो द्रव्यका उत्पाद होता है और न विनाश, किन्तु विशेषकी अपेक्षासे ही उत्पाद और विनाश होता है । ५८वीं कारिकामें यह बतलाया है कि उपादान कारणका नाश ही कार्यका उत्पाद है। नाश और उत्पाद कथंचित् भिन्न हैं और कथंचित् अभिन्न हैं । ५९वीं और ६०वीं कारिकामें दो महत्त्वपूर्ण दृष्टान्तों (लौकिक और लोकोत्तर) द्वारा वस्तुमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी सिद्धि की गयी है । चतुर्थ परिच्छेद
इसमें ६१ से ७२ तक १२ कारिकाएँ हैं। इनमें पहले वैशेषिकोंके भेदैकान्तकी और बादमें सांख्योंके अभेदैकान्तकी समीक्षा की गयी है । ६१वीं और ६२वीं कारिकामें कहा गया है कि यदि कार्य और कारणमें, गुण और गुणीमें तथा सामान्य और सामान्यवान्में सर्वथा अन्यत्व है, तो एक (अवयवी आदि)का अनेकों (अवयवों आदि)में रहना सम्भव नहीं है । क्योंकि एककी अनेकमें वृत्ति न तो एकदेशसे बन सकती है और न सर्वदेशसे । ६३वीं कारिकामें यह बतलाया है कि अवयव आदि और अवयवी आदिमें सर्वथा भेद मानने पर उनमें देशभेद और कालभेद भी मानना पड़ेगा। तब उनमें अभिन्नदेशता कैसे बन सकती है। ६४वीं कारिकामें कहा गया है कि यदि समवायियोंमें आश्रय-आश्रयीभाव होनेसे स्वातन्त्र्य
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