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प्रस्तावना
सर्वथा तत्रूप ही कहता है उसका कहना सत्य नहीं है । १११वीं कारिका द्वारा 'वाक्य निषेधके द्वारा ही अर्थका नियमन करता है' ऐसे एकान्तका निराकरण करते हुए कहा गया है कि वाणीका यह स्वभाव है कि वह अन्य वचनों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थका निषेध करती हई अपने अर्थसामान्यका भी प्रतिपादन करती है । जो वाणी ऐसी नहीं होती है वह खपुष्पके समान मिथ्या है । ११२वीं कारिका द्वारा अन्यापोहवादियोंका निराकरण करते हुए बतलाया गया है कि अन्यव्यावृत्ति मषा होनेसे शब्दका वाच्य नहीं हो सकती है। ११३वीं कारिकामें बतलाया गया है कि जो अभीप्सित अर्थका कारण है और प्रतिषेध्यका अविनाभावी है, वही शब्दका विधेय है और वही आदेय है तथा उसका प्रतिषेध्य हेय है। इस प्रकारसे स्याद्वादकी सम्यक् स्थितिका प्रतिपादन किया गया है । स्याद्वादकी संस्थिति ही ग्रन्थकारका मुख्य प्रयोजन है। ११४वीं कारिकामें ग्रन्थकारने आप्तमीमांसाकी रचनाका प्रयोजन बतलाते हए कहा है कि अपने कल्याणके इच्छुक लोगोंको सम्यक् और मिथ्या उपदेशमें भेदका ज्ञान करानेके लिए इसकी रचना की गयी है ।
इसप्रकार आप्तमीमांसाकी कारिकाओंके प्रतिपाद्य विषयका संक्षेपमें निर्देश करके अब उन्हींमेंसे कुछ विशेष विषयोंपर विशद प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।
सर्वज्ञ विमर्श धर्मज्ञ और सर्वज्ञ
प्राचीन कालसे ही सर्वज्ञताका सम्बन्ध मोक्षके साथ रहा है। यह विचारणीय विषय रहा है कि मोक्षके मार्गका कोई साक्षात्कार कर सकता है या नहीं। मोक्षमार्गको धर्मशब्दसे भी कहा जाता है । अतः विवादका विषय यह था कि धर्मका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं। कुछ लोगोंका कहना था कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थोंको कोई भी पुरुष प्रत्यक्षसे नहीं जान सकता है। इस कारण उन्होंने सर्वज्ञताका अर्थात् प्रत्यक्षसे होनेवाली धर्मज्ञताका निषेध किया। दूसरे लोगोंका कहना था कि धर्मका साक्षात्कार सम्भव है, धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का भी प्रत्यक्ष होता है । अतः उन्होंने धर्मज्ञताका समर्थन किया। इसप्रकार कुछ लोगों ने सर्वज्ञताको धर्मज्ञताके अर्थमें ही लिया है।
चार्वाक और मीमांसक सर्वज्ञके सद्भावको नहीं मानते हैं । चार्वाक
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