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प्रस्तावना में भेद माना गया है। और यदि द्रव्यादिसे पृथक्त्व गुणको पृथक् माना जाय तो द्रव्यादि परस्परमें अपृथक् हो जायगे और पृथक्त्व भी गुण नहीं रह सकेगा, क्योंकि अनेक द्रव्यादिमें रहनेके कारण ही वह पृथक्त्व कहलाता है।
२९वीं कारिका द्वारा बौद्धोंके निरन्वय क्षणिकरूप पृथक्त्वकी समालोचना करते हुए यह बतलाया गया है कि अनेक क्षणोंमें एकत्वके न मानने पर सन्तान, समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव (परलोक) नहीं बनेंगे। ३०वीं कारिकामें कहा गया है कि यदि ज्ञान ज्ञेयसे सत्त्वकी अपेक्षासे भी भिन्न है, तो दोनों असत् हो जायगे। तथा ज्ञानके अभावमें बाह्य और अन्तरङ्ग ज्ञेय भी नहीं बन सकेगा । ३१वीं कारिकामें बौद्धोंके अन्यापोहवादका निराकरण करते हुए बतलाया गया है कि जिनके यहाँ शब्दोंका वाच्य केवल सामान्य है, विशेष (स्वलक्षण) नहीं, उनके यहाँ वास्तविक सामान्यके अभावमें समस्त वचन मिथ्या ही हैं। ३२वीं कारिकामें कहा गया है कि वस्तुको सर्वथा एक और सर्वथा अनेक (उभयकान्त) मानने में विरोध है, और सर्वथा अवाच्य मानने में अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है । ३३वीं कारिकामें यह बतलाया है कि निरपेक्ष होने पर पृथक्त्व और एकत्व दोनों अवस्तु हो जायगे। परस्पर सापेक्ष होनेपर वही वस्तु एक होती है और वही अनेक। ३४वीं कारिका द्वारा बतलाया गया है कि अभेदकी विवक्षा होनेपर सत्तासामान्यकी अपेक्षासे सब पदार्थ एक हैं, और भेदकी विवक्षा होनेपर द्रव्यादिके भेदसे सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं । ३५वीं कारिकामें कहा गया है कि अनन्तधर्मात्मक विशेष्यमें जो विवक्षा और अविवक्षाको जाती है, वह सत् विशेषणकी ही होती है, असत्की नहीं। ३६वीं कारिका द्वारा यह बतलाया गया है कि भेद और अभेद दोनों वास्तविक हैं, काल्पनिक नहीं, क्योंकि वे प्रमाणके विषय होते हैं। तथा गौण और मुख्यकी विवक्षासे वे दोनों एक ही वस्तुमें अविरोधरूपसे रहते हैं। तृतीय परिच्छेद __ तृतीय परिच्छेदमें ३७से६० तक २४ कारिकाएँ हैं । ३७वीं और ३८वीं कारिका द्वारा सांख्यदर्शन के नित्यत्वैकान्तकी आलोचनामें कहा गया है कि सर्वथा नित्य पक्षमें कारकोंका अभाव होनेसे किसी प्रकारकी विक्रिया नहीं बन सकती है, प्रमाण तथा प्रमाणका फल भी नहीं बन सकते हैं। प्रमाण और प्रधानके सर्वथा नित्य होनेसे उनका पदार्थोंकी अभिव्यक्तिके
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