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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। ८३वीं कारिका द्वारा बतलाया गया है कि स्वसंवेदनको अपेक्षासे कोई ज्ञान प्रमाणाभास नहीं है। और बाह्य प्रमेयकी सत्यतासे प्रमाण तथा असत्यतासे प्रमाणाभासकी व्यवस्था होती है।
८४वीं कारिका द्वारा जीव अर्थकी सिद्धि की गयी है। संज्ञा होनेसे जीव शब्द बाह्यार्थ सहित है। इसी प्रकार माया आदि भ्रान्ति संज्ञाओंका भी अपना बाह्यार्थ होता है। ८५वीं कारिकामें बतलाया गया है कि प्रत्येक अर्थकी तीन संज्ञाएं होती है-बुद्धि संज्ञा, शब्दसंज्ञा और अर्थसंज्ञा। तथा ये तीनों संज्ञाएँ बुद्धि, शब्द और अर्थ इन तीनकी क्रमशः वाचक होती हैं । और तोनोंसे श्रोताको उनके प्रतिविम्बात्मक बुद्धि, शब्द और अर्थरूप तीन बोध होते हैं। ८६वीं कारिकामें कहा गया है कि वक्ताका बोध, श्रोताका वाक्य और प्रमाताका प्रमाण ये तीनों पृथक्-पृथक् हैं। तथा प्रमाणके भ्रान्त होनेपर अन्तर्जेय और बहिज्ञेयरूप बाह्यार्थ भी भ्रान्त होंगे। ८७वीं कारिका द्वारा यह बतलाया गया है कि बुद्धि और शब्दमें प्रमाणता बाह्य अर्थके होनेपर होती है, और बाह्य अर्थके अभावमें अप्रमाणता होती है। अर्थकी प्राप्ति होनेपर बुद्धि और शब्द दोनोंमें सत्यकी और अर्थकी प्राप्ति न होनेपर असत्यकी व्यवस्था की जाती है। अष्टम परिच्छेद
इस परिच्छेदमें ८८ से ९१ तक चार कारिकाएँ हैं। इसमें दैव और पुरुषार्थके विषयमें विचार किया गया है। ८८वीं कारिकामें यह कहा है कि यदि दैवसे ही अर्थकी सिद्धि मानी जाय तो दैवकी सिद्धि पौरुषसे कैसे होगी। और दैवसे दैवकी निष्पत्ति माननेपर मोक्षका अभाव हो जायगा। और तब मोक्षके लिए पुरुषार्थ करना निष्फल है। ८४वीं कारिका द्वारा बतलाया गया है कि यदि पुरुषार्थसे ही अर्थकी सिद्धि मानी जाय तो पुरुषार्थ दैवसे कैसे होगा। और यदि पुरुषार्थरूप कार्यकी सिद्धि भी पौरुषसे ही मानी जाय तो सब प्राणियोंमें पुरुषार्थको सफल होना चाहिए। ९०वीं कारिकामें बतलाया गया है कि उभयकान्त मानने में विरोध आता है और अवाच्यतैकान्तमें अवाच्य शब्दका प्रयोग नहीं किया जासकता है। ९१वीं कारिका द्वारा दैव और पुरुषार्थका समन्वय करते हुए यह बतलाया है कि जहाँ इष्ट और अनिष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति बुद्धिके व्यापारके विना होती है वहाँ उनकी प्राप्ति दैवसे मानना चाहिए। और
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