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प्रस्तावना
अकलंक देव उत्तर देते हैंभेदानां बहुभेदानां तत्रैकत्रापि संभवात् । -न्यायविनि० १११२१
विज्ञप्तिमात्रातासिद्धिके प्रकरणमें प्रमाणविनिश्चयमें धर्मकीर्ति कहते है -
___ सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः । अकलङ्क देव उत्तर देते हैं
सहोपलम्भनियमान्नाभेदो नीलतद्धियोः । वादन्यायके प्रारंभमें धर्मकीर्ति लिखते हैं
असाधनांगवचनमदोषोदभावनं द्वयोः ।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते॥ अकलङ्क उत्तर देते हैं--
असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनद्वयोः । ___ न युक्तं निग्रहस्थानमर्थापरिसमाप्तितः ॥
-न्यायविनि० २।२०८ इस प्रकार शालीनतापूर्वक उत्तर देनेकी प्रक्रियासे अकलङ्कके आलोचन कौशल्यका सहजही अनुमान किया जा सकता है।
अष्टसहस्रीके रचयिता आचार्य विद्यानन्द विद्यानन्दका व्यक्तित्व
जैनन्यायके प्रतिष्ठापक अकलङ्कके बाद विद्यानन्द एक ऐसे प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं जिन्होंने समस्त दर्शनोंका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करके स्वनिर्मित ग्रन्थों में अपने उच्चकोटिके पाण्डित्यका परिचय दिया है । उन्हें तार्किकशिरोमणि कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। आचार्य विद्यानन्दने अकलंकदेवको अपना आदर्श बनाया है तथा उन्हींके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर अकलंक न्यायको सर्व प्रकारसे पल्लवित और पुष्पित किया है। आचार्य विद्यानन्दने कणाद, प्रशस्तपाद और व्योमशिव इन वैशेषिक विद्वानोंके, अक्षपाद, वात्स्यायन और उद्योतकर, इन नैयायिक विद्वानोंके, जैमिनि, शबर, कुमारिलभट्ट और प्रभाकर इन मीमांसकोंके, मण्डनमिश्र और सुरेश्वरमिश्र इन वेदान्तियोंके, कपिल, ईश्वर कृष्ण, और पतंजलि इन सांख्य-योगके आचार्योंके तथा नागार्जुन, वसुबन्धु दिग्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर और धर्मोत्तर इन बौद्ध दार्शनिकोंके ग्रन्थोंका
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