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प्रस्तावना
एक दृष्टान्तसे ही जब साध्यकी सिद्धि संभव है तब दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनांगवचन है। प्रतिज्ञा, निगमन आदि साधनके अङ्ग नहीं हैं, उनका कथन असाधनांगवचन है। ___ आचार्य अकलंकने सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे छल, जाति और निग्रहस्थानके प्रयोगको सर्वथा अन्याय्य माना है। वे असाधनांगवचन और अदोषोद्धावनके चक्करमें भी नहीं पड़े। उन्होंने तो स्पष्टरूपसे इतना ही कहा कि वादीको अविनाभावो साधनसे स्वपक्षकी सिद्धि और परपक्षका निराकरण करना चाहिए। इसी प्रकार प्रतिवादीको वादीके पक्षमें यथार्थ दूषण देना चाहिए और अपने पक्षकी सिद्धि करना चाहिए। एककी जय और दूसरेकी पराजयके लिए इतना ही पर्याप्त है। इससे अधिक और किसी बातकी आवश्यकता नहीं है। एककी स्वपक्षसिद्धि हो जानेसे ही दूसरेका निग्रह हो जाता है। अतः असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावनसे क्रमशः वादी और प्रतिवादीका निग्रह मानना ठीक नहीं है। इसके साथ ही अकलंकने यह भी बतलाया है कि अन्वय और और व्यतिरेक दोनों दृष्टान्तोंके प्रयोग करनेसे निग्रहस्थान नहीं होता हैं । अतः आवश्यकतानुसार दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग किया जा सकता है। इसी प्रकार पक्षादिवचनको भी निग्रहस्थान मानना ठीक नहीं है । यदि वादमें प्रतिज्ञाका प्रयोग अनुपयोगी है तो शास्त्रमें भी उसका प्रयोग
१. एकेनापि वाक्येनान्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन वा प्रयुक्तेन सपक्षापक्षयोलिङ्गस्य सदसत्त्वख्यापनं कृतं भवतीति नावश्यं वाक्यद्वयप्रयोगः ।
--न्यायबिन्दु पृ० ५७ २. द्वयोरप्यनयोःप्रयोगे नावश्यं पक्षनिर्देशः । -न्याथबिन्दु पृ०५८ ३. स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः ।
नासाधनांगवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ॥ -अष्टस० पृ० ८७ असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमिष्टं चेत् किं पुनः साध्यसाधनैः ॥ -सिद्धिवि० ५।१० ४. अनेकान्तैकान्तयोरुपलम्भानुपलम्भयोरेकत्वप्रर्शदनार्थं तावदुभयमाह मतान्तर
प्रतिक्षेपार्थं वा, यहाद धर्मकीर्तिः–साधर्म्यवैधर्म्ययोरन्यतरेणार्थगतावुभयप्रतिपादनं पक्षादिवचनं वा निग्रहस्थानमिति । न तद् युक्तम्, साधनसामर्थ्येन विपक्षव्यावृत्तिलक्षणेन पक्षं प्रसाधयत: केवलं वचनाधिक्योपालम्भच्छलेन पराजयाधिकरणप्राप्तिः स्वयं निराकृतपक्षण प्रतिपक्षिणा लक्षणीया।
-अष्टशः अष्टस० पृ० ८१
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