________________
आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका नहीं करना चाहिए । इस प्रकार अकलंक देवने जय-पराजयकी निर्दोष प्रणाली बतलायी है। आलोचन कौशल्य
उस समय अन्य दर्शनों तथा दार्शनिकोंकी आलोचना करते समय आलोचक मर्यादाका अतिक्रमण कर जाते थे। और अपने विपक्षियोंके लिए पशु, अह्रीक ( निर्लज्ज ) आदि शब्दोंका प्रयोग करते थे। किन्तु निर्मलमना आचार्य अकलंक द्वारा की गयी विपक्षियोंकी आलोचनामें उस कटताके दर्शन नहीं होते। उन्होंने प्रायः प्रतिपक्षीका उत्तर उसीके शब्दोंमें दिया है। और कहीं प्रतिपक्षीकी भूलको पकड़कर उसका उपहास करते हुए उत्तर दिया है । जैसे
धर्मकीर्ति कहते हैंसर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति ।। -प्रमाणवा० ३।१८२
अर्थात् यदि प्रत्येक वस्तु उभयात्मक है और किसी वस्तुमें कोई विशेषता नहीं है तो दधिको खानेके लिए कहा गया मनुष्य ऊँटको क्यों नहीं खा लेता। अकलंकदेव उत्तर देते हैं
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतः स्मृतः । तथापि सुगतो वंद्यो मगः खाद्यो यथेष्यते । तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितेः। चोदितो दधि खादेति किमष्ट्रमभिधावति ॥
-न्यार्यावनि २०३, २०४ अर्थात् पूर्व पक्षको ठीकसे न समझ सकनेके कारण दूषण देनेवाला विदूषक ही है। सुगत मग हए थे और मग भी सूगत हआ। फिर भी बौद्ध सुगतकी वन्दना करते हैं और मृगको खाद्य मानते हैं। ठीक उसी प्रकार पर्याय भेदसे दही और उँटके शरीरमें भेद है। अतः दही खानेके लिए कहा गया मनुष्य दहीको ही खाता है, ऊँटको नहीं। यहाँ 'दूषकोऽपि विदूषकः' वाक्य ध्यान देने योग्य है। ___ अनेकान्तकी आलोचना करते हुए धर्मकीर्ति कहते हैंभेदानां बहुभेदानां तत्रैकस्मिन्नयोगतः। -प्रमाणवा० ३।९० १. प्रतिज्ञानुपयोगे शास्त्रादिष्वपि नाभिधीयेत, विशेषाभावात् ।
--अष्टश० अष्टस० पृ० ८३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org