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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
अकलङ्कदेवने जब अन्यथानुपपन्नत्वको ही हेतुका एकमात्र लक्षण माना है तब स्वभावतः उनके मत से अन्यथानुपन्नत्वके अभावमें एक ही हेत्वाभास होना चाहिए । उन्होंने स्वयं कहा है कि वस्तुतः एक असिद्ध ही हेत्वाभास है । यत्तः अन्यथानुपपत्तिका अभाव अनेक प्रकारसे होता है, अतः विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिञ्चित्करके भेदसे चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं । एक स्थानमें तो उन्होंने विरुद्ध आदिको अकिंचित्करका ही विस्तार कहा है । वास्तवमें हेत्वाभास और जातिका जैसा विवेचन आचार्य अकलंकके ग्रन्थोंमें मिलता है वैसा उससे पहले किसी जैन ग्रन्थ में नहीं मिलता । अकलङ्कने ही प्रमाणसप्तभंगी और यसप्तभंगीके भेदसे सप्तभंगीके दो भेद किये हैं ।
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जय पराजय व्यवस्था
न्यायदर्शन में जल्प और वित्तण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी न्याय्य माना गया है । क्योंकि जल्प और वित्तण्डाका उद्देश्य तत्त्व संरक्षण करना है । और तत्त्वका संरक्षण किसी भी उपायसे करने में कोई आपत्ति नहीं मानी गयी है । नैयायिकोंने जब जल्प और वितण्डामें छल, जाति और निग्रहस्थानका प्रयोग स्वीकार कर लिया तो बादमें भी उन्हीं के आधारपर जयपराजयकी व्यवस्था बन गयी । न्यायदर्शन में प्रतिज्ञाहानि आदि २२ निग्रहस्थान माने गये हैं ।
धर्मकीर्तिने 'वादन्याय' में छल, जाति और निग्रहस्थानके आधारसे होनेवाली जय पराजयकी व्यवस्थाका खण्डन करते हुए वादी के लिए असाधनांगवचन और प्रतिवादी के लिए अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रहस्थान माने हैं । वादीका कर्तव्य है कि वह पूर्ण और निर्दोष साधन बोले और प्रतिवादीका कर्तव्य है कि वह यथार्थ दोषोंका उद्भावन करे । इतना कहने के बाद धर्मकीर्तिने असाधनाङ्गयचन और अदोषोद्भावनके अनेक अर्थ किये हैं । उन्होंने कहा है कि अन्वय या व्यतिरेक किसी
१. अन्यथासंभवाभावभेदात् स बहुधा मतः । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्कर विस्तरैः ॥
२. अकिञ्चित्कारकान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे । ३. असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्युत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥
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- न्यायविनि० २।२६५
— न्यायविनि० २।३७१
-वादन्याय० पृ० १
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