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प्रस्तावना
का मध्याह्न काल था । इसी कारण अकलंकके ग्रन्थोंमें बौद्धदर्शनकी आलोचना विशेषरूपसे हुई है । अकलंक बौद्धों के प्रबल विपक्षी थे । इसका कारण सिद्धान्त भेद था, मनकी दुषित वृत्ति नहीं | वे समन्तभद्रके समान परीक्षा प्रधान पुरुष थे । उन्होंने अष्टशती में लिखा है कि आज्ञाप्रधान पुरुष देवोंके आगमन आदिको परमात्माका चिह्न मान सकते हैं, हमलोग नहीं। फिर भी उनमें श्रद्धाका अभाव न था, किन्तु उनकी श्रद्धा परीक्षामूलक थी । वे न केवल हेतुवादके अनुयायी थे और न केवल आज्ञावादके । उनके अनुसार आज्ञावाद तभी प्रमाण हो सकता है जब वह आज्ञा ( आगम ) किसी आप्त पुरुषकी हो' ।
शास्त्रार्थी अकलङ्क
अकलंकका युग विद्वत्समाज में शास्त्रार्थ करनेका युग था । शास्त्रार्थ धर्मप्रचार करनेका मुख्य साधन समझा जाता था | चीनी यात्री फाहियान और हथून त्सांग ने अपनी अपनी यात्राके वर्णनमें कई शास्त्रार्थों का उल्लेख किया है । हयून त्सांग सातवीं शताब्दी के मध्य में भारत आया था । और बहुत समय तक नालन्दा विश्वविद्यालयमें रहा था । उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुए शास्त्रार्थीका रोचक वर्णन लिखा है । अकलंककी प्रसिद्धि शास्त्रार्थी तथा बौद्धवादिविजेताके रूपमें रही है । उस समयके शास्त्रार्थ प्रायः राज्य सभाओंमें हुआ करते थे और राजा तथा प्रजा उसमें समानरूपसे रुचि रखते थे । अकलंकने भी कई राज्य सभाओं में जाकर बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ किया था ।
बौद्धसम्प्रदायमें तारादेवीका महत्त्वपूर्ण स्थान है । और अकलंकक ताराविजेताके रूपमें प्रसिद्धि है । बौद्धोंकी इष्ट देवी तारा परदेकी ओट में घटके अन्दर बैठकर शास्त्रार्थ करती थी और उस तारादेवीको अकलंकने शास्त्रार्थमें पराजित किया था । कलिंग देशके राजा हिमशीतलकी सभामें अकलंकके शास्त्रार्थ और तारादेवीकी पराजयका उल्लेख श्रवणबेलगोलकी मल्लिषेण प्रशस्ति में इस प्रकारसे किया गया हैतारा ये विनिर्जिता घटफुटी गूढावतारा समम्, बौद्वैर्या घृतपीठपीडित कुदृग्देवात्तसेवाञ्जलिः ।
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१. आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशागमादिकं परमेष्ठिनः परमात्मचिन्हं प्रतिपद्येरन् नास्म-- अष्टश० अष्टस० पृ० २
दादयः ।
२. सिद्धे पुनराप्तवचने यथा हेतुवादस्तथा आज्ञावादोऽपि प्रमाणम् ।
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-- अष्टशः अष्टस० पृ०
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