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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
गोचर होता है । सर्वप्रथम प्रथम शताब्दीके प्रमुख आचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणका सामान्य लक्षण करके तथा सातभंगों के नाम गिनाकर न्यायके क्षेत्रमें दार्शनिक शैलीका सूत्रपात किया है । इसके अनन्तर आचार्य गृद्धपिच्छने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें प्रमाण और नयकी चर्चा तथा षट्खण्डागमके अनुसार मतिज्ञान में स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ) चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ( अनुमान) का अन्तर्भाव करके न्यायोपयोगी सामग्रीको प्रस्तुत किया है । इसके बाद समन्तभद्रने अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगीके निरूपणमें ही अपनी सारी शक्ति लगा दी । इसके अनन्तर आचार्य सिद्धसेनने प्रमाण और नयका निरूपण करनेके लिए 'न्यायावतार' नामक एक स्वतंत्र प्रकरण ग्रन्थका निर्माण किया । अकलङ्क देवके पहले जैन न्यायकी यही रूपरेखा उपलब्ध होती है ।
तदनन्तर अकलङ्क देवने न्यायके क्षेत्रमें अनेक नूतन बातों को सम्मिलित करके जैन न्यायको सुव्यवस्थित किया है । सबसे पहले उनका ध्यान प्रमाणकी पद्धतिकी ओर आकृष्ट हुआ । आगम में प्रमाणके दो भेद बतलाये गये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्षमें अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान सम्मिलित हैं । मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष माने गये हैं । आगममें इन्द्रियजन्य ज्ञानको परोक्ष माना गया है, जबकि अन्य दार्शनिकोंने इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष माना है । अकलङ्क देवके सामने इन दोनोंमें सामञ्जस्य स्थापित करनेकी समस्या थी । उन्होंने इस समस्याका समाधान बहुत ही सुन्दर रीतिसे किया है । उन्होंने प्रत्यक्षके मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ये दो भेद करके इद्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले मतिज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह कर प्रत्यक्षमें सम्मिलित कर लिया । ऐसा करनेसे प्राचीन परम्पराकी सुरक्षा भी हो गयी, और अन्य दार्शनिकोंके द्वारा अभिमत प्रत्यक्षकी परिभाषाके अनुसार लोकव्यवहारकी दृष्टिसे सामञ्जस्य भी हो गया ।
पुनः सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके दो भेद किये -- इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष । उन्होंने मतिज्ञानको इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा, तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन चार ज्ञानोंको अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष बतलाया' । उन्होंने एक नवीन बात यह भी बतलायी है कि मंति आदि
१. इन्द्रियार्थज्ञानं अवग्रहेहावायधारणात्मकम् । अनिन्द्रियत्यक्षं स्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोधात्मकम् ।
लधीयस्त्रयवृ० का० ६१
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