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आचार्य समन्तभद्रको दार्शनिक उपलब्धियाँ
सर्वज्ञसिद्धि - जैनदर्शनके इतिहासमें यह प्रथम अवसर है जब आचार्य समन्तभद्रने युक्ति और तर्कके द्वारा सर्वज्ञको सिद्ध किया है । इसके पहले आग में सर्वज्ञका प्रतिपादन अवश्य किया गया है और यह भी बतलाया गया है कि केवलज्ञानका विषय समस्त द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्याएँ हैं । सर्वप्रथम षट्खण्डागम में सर्वज्ञताका स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । आचार्य कुन्दकुन्दने भी उसीका अनुसरण करते हुए प्रवचनसारमें केवलज्ञानको त्रिकालवर्ती समस्त अर्थों का जाननेवाला बतलाया है । आचार्य कुन्दकुन्दके अनन्तर आचार्य गृद्धपिच्छने भी केवलज्ञानका विषय सर्व द्रव्योंकी सब पर्यायोंको बतलाया है ।
आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका
आचार्य समन्तभद्रने उपर्युक्त आगममान्य सर्वज्ञताको तर्ककी कसौटी पर कसकर दर्शनशास्त्रमें सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण किया है । 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षा: अनुमेयत्वात्, अग्न्यादिवत्' 'सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ अनुमेय होनेसे अग्नि आदिकी तरह किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं, इस अनुमान द्वारा सामान्यरूपसे सर्वज्ञसिद्धि करके पुनः
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥
इस कारिका द्वारा युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्व हेतुसे अर्हन्तमें सर्वज्ञत्व (आप्तत्व ) की सिद्धि कीगयी है । समन्तभद्रने आप्तको निर्दोष और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् बतलाया है । और आप्त में युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वके समर्थनमें उन्होंने अपनी सारी शक्ति लगा दी है । उनका आप्त इसलिए आप्त है कि उसका इष्ट तत्त्व प्रसिद्ध (प्रमाण) से बाधित नहीं होता है ।
१. सई भगवं उप्पण्णणाणदरिसी सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म सम जादि पस्सदि विहरदित्ति । षट्खं० पयडि० सू० ७८
२. जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं णागं खाइयं भणियं ॥
३. सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।
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प्रवचनसार १।४७
तत्त्वार्थसूत्र १।२९
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