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प्रस्तावना
३७ पर प्रचलित थी, आचार्य समन्तभद्रने उन्हीं तत्त्वोंको दार्शनिक शैलीमें स्याद्वादनय अथवा प्रमाण और नयके आधारपर प्रतिष्ठित किया है। स्याद्वादकी सिद्धि करना ही उनका मुख्य ध्येय था । यद्यपि उन्होंने न्यायशास्त्रके विषयमें विशेष नहीं लिखा है, फिर भी अनेकान्त, स्याद्वाद, सप्तभंगी, प्रमाण और नयकी स्पष्ट व्याख्या करके जैन न्यायकी नींव अवश्य रक्खी है। इन्हींके ग्रन्थोंमें 'न्याय' शब्दका प्रयोग सबसे पहले देखा जाता है । उपेयतत्त्वके साथ ही उपायतत्त्व आगमवाद और हेतुवाद में अनेकान्तको योजना करके उन्होंने अनेकान्तके क्षेत्रको व्यापक बनाया है । उनके समयमें हेतुवाद आगमवादसे पृथक् हो गया था । अतः उन्हें हेतुवादके आधारपर आप्तकी मीमांसा करना उचित प्रतीत हुआ । उन्होंने प्रमाणको स्याद्वादनयसंस्कृत बतलाकर श्रुतज्ञानको स्याद्वाद शब्दसे सम्बोधित किया है। सुनय और दुर्नयकी व्यवस्था, प्रमाणका दार्शनिक दृष्टिसे व्यवस्थित लक्षण, प्रमाणके फलका निरूपण, और अनेकान्तमें भी अनेकान्तकी योजना, यह सब सर्व प्रथम समन्तभद्रने ही किया है । इन सब बातोंके कारण जैनदर्शनके इतिहासमें समन्तभद्रका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
समन्तभद्रके समयमें दार्शनिक विचारधारा
समन्तभद्रका समय भारतीय दर्शनके क्षेत्रमें एक बहुत बड़ी क्रांतिका समय था। उस समय प्रत्येक दर्शनके क्षेत्रमें महान दार्शनिकोंने जन्म लेकर तत्कालीन प्रचलित विचारधाराको अपनी-अपनी तर्कबुद्धिके द्वारा अपने-अपने मतानुसार मोड़नेका प्रयत्न किया था। उस समय भावैकान्त, अभावैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद आदि अनेक प्रकारके एकान्तवादोंका प्राबल्य था । समन्तभद्र के पहले भावैकान्त, अभावैकान्त आदि अनेक एकान्तोंका स्थूलरूपसे आगममें उल्लेख मिलता है। समन्तभद्रने उन्हीं अनेक एकान्तोंका सूक्ष्मरूपसे परीक्षण करके युक्तिके द्वारा उनका निराकरण किया है। परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्मोके समुदायरूप वस्तुकी सिद्धि सर्वप्रथम आचार्य समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें ही उपलब्ध होती है। समस्त एकान्तवादोंका स्याद्वादन्यायके द्वारा समन्वय करना समन्तभद्रकी अपनी विशेषता है।
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