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कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६५ ]
सेवाधर्म-दिग्दर्शन
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है। आत्मविकास को अपना लक्ष्य बनानेवाले प्राणव्यपरोपण में कारणीभूत मन-वचन-कायकी मानवोंकी ऐसी ही परिणति होती है। अस्तु । प्रमत्तावस्थाका त्याग किया जाता है । मन-वचन
कायकी इन्द्रिय-विषयों में स्वेच्छा प्रवृत्तिका भले ____ लक्ष्यशुद्धिकं साथ इस सेवाधर्मका अनुष्ठान हर कोई अपनी शक्तिके अनुसार कर सकता है। प्रकार निरोधरूप 'गुप्ति', गमनादिकमें प्राणिनौकर अपनी नौकरी, दुकानदार दुकानदारी,
पीड़ाके परिहाररूप 'समिति', क्रोधकी अनुत्पत्ति वकील वकालत, मुख्तार मुख्तारकारी, मुहरिर. रूप 'क्षमा', मानके अभावरूप 'मार्दव', माया मुहनिरी, ठेकेदार ठेकेदारी, आहदेदार ओहदेदारी, अथवा योगवक्रता की निवृत्तिरूप 'आर्जव, लोभ डाक्टर डाक्टरी, हकीम हिकमत, वैद्य वैद्यक, कं परित्यागरूप 'शौच', अप्रशस्त एवं असाधु शिल्पकार शिल्पकारी, किमान खेती तथा दूसरे वचनोंके त्यागरूप 'सत्य', प्राणव्यपरोपण और पेशेवर अपने अपने उम पेशे का कार्य और मज- इन्द्रिय विषयों के परिहाररूप 'संयम', इच्छानिरोध. दर अपनी मजदूरी करता हुआ उमीगसे मवा पतप'. दष्ट विकल्पोंक संत्याग अथवा आहाका मार्ग निकाल सकता है । मबकं कार्यो में
रादिक देय पदार्थों में से ममत्वके परिवर्जनरूप संवाधर्मके लिये यथेष्ट अवकाश है-गुंजाइश है।
'त्याग,' वाह्य पदार्थों में मूर्खाकं अभावरूप 'प्रा. सेवाधर्मके प्रकार और मार्ग किंचिन्य,' अब्रह्म अथवा मैथुनकर्मको निवृत्तिरूप
'ब्रह्मचर्य,' ( ऐसे 'दशलक्षणधर्म )' क्षुधादि वेदनाअब मैं संक्षेप गं यह बतलाना चाहता हूँ कि ।
हता हू के उत्पन्न होने पर चित्तम उद्वग तथा अशान्ति सेवा-धर्म कितने प्रकार का है और उसके मुख्य
___ को न होने देने रूप 'परिषहजय,' राग-द्वेषादि
मक मुख्य भेद दी हैंएक क्रियात्मक और दूसग प्रक्रियात्मक । क्रिया- विषमताओंकी निवृत्तिरूप 'सामायिक,' और त्मक की प्रवृत्तिरूप तथा अक्रियात्मकको निवृतिरूप कर्म-ग्रहण की कारणीभून क्रियाओम विरक्तिसेवाधम कहने हैं। यह दोनों प्रकारका संवाधर्म रूप 'चारित्र,' ये सब भी निवृत्तिरूप संवाधर्मके मन, वचन और काय के द्वारा चरितार्थ होता ही अंग हैं, जिनमें से कुछ 'हिंसा' और कुछ है, इमलिय सेवाके मुख्य माग मानसिक, वाचिक हिंसेतर क्रियाक निषेधको लिये हुए हैं। और कायिक ऐसे तीन ही है-धनादिकका सम्बंध काय के साथ होने से वह भी कायिक में ही इम निवृत्ति-प्रधान संवाधर्मक अनुष्ठान के लिये शामिल है। इन्हीं तीनों मागस सेवाधर्म अपने किसी भी कौड़ी-पैसकी पासमें जरूरत नहीं कार्यमें परिणन किया जाता है और उसमें है। इसमें तो अपने मन-वचन-कायकी कितनी
आत्म-विकास के लिये महायक मारे ही धर्म- ही क्रियाओं तकका रोकना होता है-उनका भी समूह का समावेश होजाता है।
व्यय नहीं किया जाता। हाँ, इस धर्म पर चलने के निवृत्तिरूप सेवाधर्ममें अहिंमा प्रधान है। लिये नीचे लिखा गुरुमंत्र बड़ा ही उपयोगी हैउसमें हिंमारूप क्रियाका-मावद्यकर्मका-अथवा अच्छा मार्गदर्शक है :