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इसी प्रकार हे सुदर्शन! तुम्हारे मतानुसार भी प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक की शुद्धि नहीं हो सकती, जैसे उस रुधिरलिप्त और रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र -
की शुद्धि नहीं होती। हे सुदर्शन! जैसे यथानामक (कुछ भी नाम वाला) कोई पुरुष एक बड़े 卐 रुधिरलिप्त वस्त्र को सज्जी के खार के पानी में भिगोवे, फिर पाकस्थान (चूल्हे) पर चढ़ावे, 卐
चढ़ा कर उष्णता ग्रहण करावे ( उबाले) और स्वच्छ जल से धोवे, तो निश्चय से हे मुदर्शन! वह रुधिर-लिप्त वस्त्र, सज्जीखार के पानी में भीग कर, चूल्हे पर चढ़ कर, उबल कर और शुद्ध जल से प्रक्षालित होकर शुद्ध हो जाता है।
(सुदशन कहता है-) हां , हो जाता है।' इसी प्रकार हे सुदर्शन! हमारे धर्म के 卐 ॐ अनुसार भी प्राणातिपात के विरमण से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण तक सम्पन्न होने के
वाली आन्तरिक शुद्धि होती है, जैसे उस रुधिरलिप्त वस्त्र की शुद्ध जल से धोये जाने पर 卐 शुद्धि होती है।
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यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निःस्पृहमहिंसकं चेतः। दुश्छेद्यान्तर्मलहत्तदेव शौचं परं नान्यत् ॥
(पद्म. पं. 1/94) पर-स्त्री एवं सामान्य प्राणियों के प्रति जो अहिंसा-पूर्ण हृदय से व्यवहार करता है, ॐ दुर्भेद्य आन्तरिक मल को दूर करने वाला वह व्यवहार ही उसके लिए 'शौच' है, अन्य कुछ 'शौच' नहीं है।
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{100 सूक्ष्माऽपि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः। हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या॥
__(पुरु. 4/13/49) वास्तव में परवस्तु के कारण जो उत्पन्न हो, ऐसी सूक्ष्म हिंसा भी आत्मा के नहीं है 卐 होती, तो भी परिणामों की निर्मलता के लिए हिंसा के स्थान (रूप परिग्रह आदि) का त्याग
करना चाहिए। (तात्पर्य यह है कि बाह्य वस्तुएं चूंकि आन्तरिक परिणामों की निर्मलता को
दूषित करती हैं, इस दृष्टि से बाह्य वस्तुएं (परम्परया) हिंसा-स्थान हैं, अतः परिणाम-शुद्धि 卐 के लिए भी उनका त्याग कर्तव्य है।)
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[जैन संस्कृति खण्ड
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