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事事事 वह तू ही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है, वह तू ही है, 馬
! जिसे तू मारने योग्य मानता है ।
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ज्ञानी पुरुष ऋजु (सरलात्मा) होता है, वह (परमार्थतः हन्तव्य और हन्ता की एकता का) प्रतिबोध पा कर जीने वाला होता है। इस (आत्मैक्य के प्रतिबोध) के कारण 卐 वह स्वयं जीव- वध नहीं करता और न दूसरों से वध करवाता है ( और न ही वह वध करने 卐 वाले का अनुमोदन करता है) । कृत-कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी का हनन करने की इच्छा मत करो ।
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(4)
आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥
(है. योग. 2 /20)
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जैसे स्वयं को सुखप्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही अन्य जीवों को भी सुख
प्रिय और दुःख अप्रिय है, ऐसा विचार कर स्वयं के लिए अनिष्टरूप हिंसा का आचरण क | दूसरे के लिए भी न करे । 馬
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[हिंसा-त्याग व समत्व दृष्टि से मोक्ष-प्राप्ति ]
(5)
सव्वारंभ - परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य। एक्कग्गमणसमाहाणया य, अह एत्तिओ मोक्खो ॥
सब प्रकार के आरम्भ (हिंसा) और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियों के प्रति
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O अहिंसा का व्यावहारिक रूप : प्राणि-हित में प्रवृत्ति
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समता, और चित्त की एकाग्रतारूप समाधि - बस इतना मात्र मोक्ष है।
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[ जैन संस्कृति खण्ड /2
(बृह. भा. 4585)
(6)
भूतहितं ति अहिंसा ।
(नंदी. चू. 5/38 )
प्राणियों का हित (करना, या प्राणी हित से सम्बन्धित कार्य ) 'अहिंसा' है ।
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