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O अहिंसा : आन्तरिक विशुद्धि की साधना
[ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में थावच्चापुत्र नामक जैन अनगार व सुदर्शन सेठ के मध्य हुई एक चर्चा वर्णित है। इसमें थावच्चापुत्र अनगार यह प्रतिपादित करता है कि हिंसा आदि से विरति (रूप अहिंसा धर्म) से ही आन्तरिक शुद्धि होती है।]
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तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी- 'तुब्भे णं सुदंसणा! किंमूलए धम्मे ॐ पण्णत्ते?' 'अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूले धम्मे पण्णत्ते, जाव सग्गं गच्छंति।' ।
तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-'सुदंसणा! से जहानामए केई पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स 卐 रुहिरेण चेव पक्खालिजमाणस्स अत्थि काइ सोही?' णो तिणढे समढे।
(ज्ञाता. 5/36-37) थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन सेठ से कहा-सुदर्शन! तुम्हारे धर्म का मूल क्या कहा 卐 गया है? (सुदर्शन ने उत्तर दिया-) देवानुप्रिय! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। इस 卐 धर्म से जीव स्वर्ग में जाते हैं।
तब थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा- हे सुदर्शन ! जैसे कुछ भी नाम वाला कोई पुरुष एक बड़े रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से ही धोए, तो हे सुदर्शन! इस 卐 रुधिर से ही धोये जाने वाले वस्त्र की कोई शुद्धि होगी? (सुदर्शन ने कहा)- यह अर्थ समर्थ 卐 नहीं, अर्थात् ऐसा नहीं हो सकता-रुधिर से लिप्त वस्त्र रुधिर से शुद्ध नहीं हो सकता।
{8} एवामेव सुदंसणा! तुब्भं पि पाणाइवाएण जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिजमाणस्स नत्थि सोही। '
सुदंसणा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जियाखारेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता पयणं आरुहेइ, आरुहित्ता उण्हं गाहेइ, गाहित्ता तओ पच्छा सुद्धेणं वारिणा धोवेज्जा, से णूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेण 卐 अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स ॐ सोही भवई? 'हंता भवइ।' एवामेव सुदंसणा! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेण अत्थि सोही, जहा वि तस्स रुधिरकयस्स वत्थस्स सुद्धणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स अत्थि सोही।
(ज्ञाता. 5/38)卐 FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFE
अहिंसा-विश्वकोश/3]