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श्रमणाचार : एक अध्ययन
छठे अध्ययन में महाचारकथा का निरूपण है। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचारकथा का वर्णन था। उस अध्ययन की अपेक्षा यह अध्ययन विस्तृत होने से महाचारकथा है। तृतीय अध्ययन में अनाचारों की एक सूची दी गई है किन्तु इस अध्ययन में विविध दृष्टियों से अनाचारों पर चिन्तन किया गया है। तृतीय अध्ययन की रचना श्रमणों को अनाचारों से बचाने के लिए संकेतसूची के रूप में की गई है, तो इस अध्ययन में साधक के अन्तर्मानस में उबुद्ध हुए विविध प्रश्नों के समाधान हेतु दोषों से बचने का निर्देश है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि तृतीय अध्ययन में अनाचारों का सामान्य निरूपण है तो इस अध्ययन में विशेष निरूपण है। यत्र-तत्र उत्सर्ग और अपवाद की भी चर्चा की गई है। उत्सर्ग में जो बातें निषिद्ध कही गई हैं, अपवाद में वे परिस्थितिवश ग्रहण भी की जाती हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है।
आध्यात्मिक साधना की परिपूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान, ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं किन्तु उसके लिए आचरण भी आवश्यक है। बिना सम्यक् आचरण के आध्यात्मिक परिपूर्णता नहीं आती। सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान आवश्यक है। सम्यग्दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान अर्थ-तत्त्व का साक्षात्कार है, श्रद्धा और ज्ञान की परिपूर्णता जैन दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है किन्तु सम्यक्चारित्र की पूर्णता न होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में सम्यक्चारित्र की पूर्णता होती है तो उसी क्षण आत्मा मुक्त हो जाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया कदम, अन्तिम चरण है। सम्यगदर्शन परिकल्पना है, सम्यग्ज्ञान प्रयोग विधि है और सम्यक्चारित्र प्रयोग है। तीनों के संयोग से सत्य का पूर्ण साक्षात्कार होता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है। ___छठे अध्ययन का अपर नाम 'धर्मार्थकाम' मिलता है। मूर्धन्य मनीषियों की कल्पना है कि इस अध्ययन की चौथी गाथा में हंदि धमत्थकामाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, इस कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम हो गया है। यहां पर धर्म से अभिप्राय मोक्ष है। श्रमण मोक्ष की कामना करता है। इसलिए श्रमण का विशेषण धर्मार्थकाम है। श्रमण का आचार-गोचर अत्यधिक कठोर होता है। उस कठोर आचार का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन में हुआ है, इसलिए सम्भव है इसी कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम रखा हो।१४३
इस अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं। सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्छा परिग्रह है, ऐसा महर्षि ने कहा। श्रमणों के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएं रही हैंदिगम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र धारण नहीं कर सकता तो श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र को धारण कर सकता है। आचारचूला में श्रमण को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित आदि कहा है। उत्तराध्ययन में श्रमण की सचेल और अचेल इन दोनों अवस्थाओं का वर्णन है। आचारांग में जिनकल्पी श्रमणों के लिए शीतऋतु
–दशवैकालिक नि. २६५
-आयार-चूला ५/२
१४३. धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणावाहं ।
तमभिप्पेया साह, तम्हा धम्मत्थकाम त्ति ॥ १४४. जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थ धारिज्जा नो वीयं। १४५. एगयाऽचेलए होई, सचेले आवि एगया । एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए ॥
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-उत्तराध्ययन २/१३