Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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पासित्ता ओहिं पउंजति। तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु मम पुव्वसंगतिए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठति। __ तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउब्भवित्तए।'' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निसिरति। तं जहा
रयणाणं १ वइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगब्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८ जोइरसाणं ९ अंकाणं १0 अंजणाणं ११ रयणाणं १२ जायसवाणं १३ अंजणपुलयाणं १४ फलिहाणं १५ रिट्ठाणं १६ अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परिगिण्हति, परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणियनेह-पीइ-बहुमाण-जायसोगे, तओ विमाणवरपुण्डरियाओ रयणुत्तमाओ धरणियल-गमणतुरियसंजणित-गयणपयारो वाघुण्णित-विमल-कणग-पयरगवडिंसग-मउडुक्कडाडो-वदंसणिज्जो, अणेगमणि-कणग-रयण-पहकरपरि-मंडित-भत्तिचित्तविणिउत्तमणुगुणजणियहरिसे, पिंखोलमाण-वरललित-कुंडलुज्जलियवयणगुणजनितसोमरूवे, उदितो विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगार-उज्जलियमज्झभागत्थे णयणाणंदो, सरयचंदो, दिव्योसहिपज्जलुज्जलिय-दंसणाभिरामो उउलच्छिसमत्तजायसोहो पइट्टगंधुद्धयाभिरामो मेरुरिव नगवरो, विगुव्वियविचित्तवेसो, दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्झंकारेणं वीइवयमाणो, उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोगं, रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य पासं ओवयति दिव्वरूवधारी।
सूत्र ४६. जब अभयकुमार का तेले का तप पूरा होने को आया तब उनके पूर्व भव के मित्र सौधर्म देव का आसन डोलने लगा। इस पर उस देव ने अवधिज्ञान से सब कुछ जाना
और विचार किया-“मेरे पूर्व भव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के दक्षिणार्ध भरत की राजगृह नगरी की पौषधशाला में तेले का व्रत कर रहा है और बार-बार मुझे स्मरण कर रहा है। उचित होगा कि मैं उसके पास जाऊँ।" इस प्रकार विचार कर वह देव ईशानकोण की ओर जाता है और वैक्रिय समुद्घात की क्रिया करता है। उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर संख्यात योजन का दण्ड बनाता है। फिर उनमें से स्थूल पुद्गलों का त्याग करता है और सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण कर उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है। यह क्रिया उसी प्रकार होती है जैसे निम्न रत्नों
- RAMA
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JNATA DHARMA KATHĂNGA SŪTRA
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