Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 170
________________ (१३४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र CrON - - ॐॐ AAMIRMA Dia काल - Ho wwmaER सूत्र १४७. तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह चिट्ठइ जाव संजमेणं संजमइ। तए णं से मेहे अणगारे जाए इरियासमिए, अणगारवन्नओ भाणियव्यो। सूत्र १४७. श्रमण मेघ ने भगवान का उपदेश सुना तथा सम्यक् रूप से अंगीकार कर लिया और वे ईर्या समिति आदि से युक्त अनगार बन गये। अनगार का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार है। ___147. Ascetic Megh heard and absorbed the preaching of Shraman Bhagavan Mahavir. He became an ascetic observing every prescribed discipline. The description of an ascetic is as mentioned in Aupapatik Sutra. सूत्र १४८. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयारूवाणं थेराणं सामाइयमाइयाणि एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरइ। सूत्र १४८. फिर मेघ अनगार ने भगवान के निकट रहकर उनके समान स्थविर श्रमणों से सामायिक से आरम्भ कर ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन किया। फिर वे अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पंचौला, अर्द्धमासखमण एवं मासखमण आदि तपस्या से आत्मा को तपाते हुए विहार करने लगे। 148. Living near Shraman Bhagavan Mahavir and under the tutelage of his senior ascetic disciples ascetic Megh studied all the subjects beginning from Samayik and covering all the eleven Angas (canons). He started doing various penances including fasts for a day, two days, three days, four days, five days, a fortnight and a month and followed the ascetic way of life. सूत्र १४९. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ। पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। सूत्र १४९. भगवान महावीर तब गुणशील चैत्य और राजगृह नगर से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। ___149. After some time Shraman Bhagavan Mahavir left the Gunshil Chaitya and coming out of Rajagriha he resumed his itinerant life moving about in various populated areas. AIHINo amanna / (134) JNĀTĂ DHARMA KATHĀNGA SUTRA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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